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साथ भी है । (+) तथा-"जैसे वेदान्त की अनिर्वचनीय ख्याति का यथार्थ स्वरूप समझे बिना ही कतिपय जैन विद्वानों ने वेदान्त दर्शन को सर्वथा भ्रांतिमय बतलाते हुए उसका अनुचित उपहास किया है उसी तरह ब्राह्मण विद्वानों ने भी जैनों के अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद के वास्तव स्वरूप को नासमझ करही उन्मत्त प्रलाप कह कर उसका मिथ्याखण्डन किया है + इससे प्रतीत हुआ कि जैनदर्शन के प्रतिपक्षी पंडितों ने अनेकान्तवाद का प्रतिवाद करते समय उसको जिस रूप में समझा अथवा माना है वह उसका यथार्थ स्वरूप नहीं प्रतिपक्षी विद्वानों के द्वारा प्रदर्शित
x जेवी रीते जैनों ना अनेकान्तवाद ने अथवा षडभंगी ( सप्तभंगी) नयने अन्याय थाप छे तेवी रीते वेदान्त ना अनिर्वचनीयताना वाद ने पण अन्याय थायछे ।
[पृष्ठ २०७- पूर्वार्द्ध ] + जेवी रीते ब्राह्मणों ना वेदान्तना मायावादनी अनिर्वचनीय ख्याति न स्वरूप केटलाक जैनोने नहीं समजायाथी जैनदर्शनमां वेदान्तशास्त्र नो "मुक्तिमा भ्रांति, प्रपंच एटले संसारमा भ्रांति, शास्त्रमा भ्रांति, प्रवृतिमां भ्रांति-एम जेनी मर्विज प्रांति मय छ तेवा वेदांतिने शामा प्रांति न कहे वाय" एरीतनो उपहासथयोछे, तेवीज रीते जैन दर्शन नं अनेकान्तवाद अनेस्याद्वाद नं स्वरूप विचारशील बामणो ने पण स्पष्ट नहिथवाथी, जैनो न शास्त्र एकान्त निश्चय जणावनार नहीं
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