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कुल्लूकभट्ट – शूद्रं द्विजाति कर्म कारिणं द्विजातिंच शूद्र कर्मकारिणं, ब्रह्मा विचार्य "नसमौ नासमौ" इत्यवोचत् । यतः शूद्रो द्विजाति कर्मापि न द्विजाति समः तस्यानधिकारिणो द्विजाति कर्माचरणेऽपि तत्साम्याभावात् एवं शूद्र कर्मापि द्विजातिर्नशूद्रसमः निषिद्धसेवनेन जात्युत्कर्षस्यानपायात् । नाप्यसमौ निषिद्धाचरणेनोभयोः साम्यात् ।
भावार्थ - द्विजाति - [ ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य ] के लिये जिन कर्मों का विधान किया गया है उनका आचरण करने वाला शूद्र और शूद्रोचित कर्मों का सेवन करने वाला द्विजाति, इन दोनों के विषय में विचार करके ब्रह्मा ने यह कहा कि ये दोनों आर्य[ अनार्य द्विजाति और शूद्र ] - आपस में न तो समान हैं और न असमान हैं, अर्थात् ये दोनों सर्वथा एक भी नहीं और सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं। द्विजाति का कर्म करने पर भी शूद्र द्विजाति नहीं हो सकता एवं शूद्रोचित कर्म का अनुष्ठान करने पर द्विजाति शूद्र नहीं बनजाता इस अपेक्षा से ये दोनों सम अर्थात् एक नहीं हो सकते परन्तु दोनों ही निषिद्ध का आचरण कर रहे हैं अतः ये, असम अर्थात् भिन्न भी नहीं हैं । तब इसका यही तात्पर्य निकला कि ये दोनों किसी अपेक्षा से समान और किसी दृष्टि से असमान भी हैं किन्तु एकान्ततया न सम हैं और न असम हैं ।
मनुस्मृति के इस उक्त श्लोक से प्रस्तुत विषय पर जो प्रकाश पड़ता है वह स्पष्ट है ।
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