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(१४८ ) अभिन्न है ऐसा मंतव्य तार्किकों-नैयायिकों का है, इसीलिये कर्तृत्वादि जो सत्व के धर्म हैं उनको वास्तविक रूप से वे आत्मा में मानते हैं तथा आत्मा और प्रकृति में सांख्यमतानुयायी तो केवल प्रतीति मात्र ही एकत्व मानते हैं और नैयायिक लोग उसी एकत्व को वास्तव रूप से स्वीकार करते हैं। परन्तु ये दोनों होमत असंगत हैं, विचार शून्य हैं। इस अभिप्राय से सत्व और पुरुष का आत्यन्तिक भेद मानने वाले सांख्य मतावलम्बी के प्रति यह विरोध उपस्थित किया गया है कि यदि सत्व, पुरुष से सर्वथा भिन्न और स्वतन्त्र सत्ता रखने वाला है तो वह मुक्तात्मा का भी कभी त्याग नहीं कर सकता । तात्पर्य कि जिस प्रकार संसार दशा में या बन्ध दशा में वह पुरुष से सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र होता हुआ उसका त्याग नहीं करता उसी प्रकार मोक्ष दशा में भी वह पुरुष से किसी प्रकार पृथक् नहीं हो सकता इस प्रकार मोक्ष का ही अभाव हो जावेगा। तथा जो तार्किक लोग सत्व के धर्म भूत कर्तृत्वादि गुणों को आत्मा में वास्तव रूप से स्वीकार करते हैं उनके मत में भी मोक्ष की उपपत्ति नहीं होसकती। क्योंकि वास्तविक-स्वाभाविक-धर्मों का,धर्मी के नाश के विना कभी विनाश नहीं हो सकता, कर्तृत्वादि धर्म, यदि आत्मा में स्वभाव सिद्ध हों तो उनका आत्मा के नाश हुए बिना कभी नाश नहीं होगा ( आत्मा का कभी नाश होता ही नहीं इसलिये उसके स्वभाव भूत कर्तृत्वादि गुण भी कभी नष्ट न होंगे) तब तो मोक्ष का होना असंभव ही होजायगा किन्तु सत्व और पुरुष में विचार दृष्टि से पृथक् भाव-भेद और सहजत्व-अभेद दोनों को ही मानना यथार्थ है । इसी प्रकार इनमें एकत्व और
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