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________________ ( १४० ) नहीं और असत् भी नहीं ( ऋ० १० । १२९ । १) अथवा "अणोरणीयान् महतो महीयान्, अर्थात् अणु से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा है (कठ० २ । २०) "तदेजति तन्नजति तत दूरे तद्वतिके" अर्थात् वह हिलता है और हिलता भी नहीं, वह दूर है और समीप भी है (ईश० ५ मुं०३ । २७) "अथवा" सर्वेन्द्रिय गुणाभास होकर भी सर्वेन्द्रिय विवर्जित है (श्वेता० ३ । १७) (इत्यादि)......." ......................... TV उपर्युक्त वचनों से यह प्रकट होता है कि न केवल भगवद्गीता में ही वरन् महाभारतान्तर्गत नारायणीय या भागवत में और उपनिषदों में भी परमात्मा का अव्यक्त स्वरूप ही व्यक्त स्वरूप से श्रेष्ट माना गया है और यही अव्यक्त श्रेष्ट स्वरूप वहां तीन प्रकार से वर्णित है अर्थात् सगुण सगुण-निर्गुण और अन्त में केवल निर्गुण इत्यादि+। ब्रह्म या परमात्मा के स्वरूप विषय में भगवद्गीता और उपनिषदों का यह सार है जो ऊपर प्रदर्शित किया गया है भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अर्जुन ! सत् और असत् दोनों में ही हूं (1) तथा तैत्तिरीय उपनिषद् में भी ब्रह्म का प्रतिद्वन्द्वात्मक (*) नासदासीनो सदासीत्तदानीं (+) लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य हिन्दी अनुवाद पृष्ठ २०३ से २०६ तक। (1)" सदसच्चाहअर्जुन” (गी० म० श्लो० १६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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