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( ११३ ) शरीर है" इत्यादि पुराणोक्तियों से चिदचित-चेतन और जड़-शरीर भूत परब्रह्म शिव ही कार्य और कारण रूप अवस्थाद्वय से अवस्थित है। तथा उसमें चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म में-गुण दोष व्यवस्था के लिये दृष्टान्त. का सद्भाव होने से वेदान्त वाक्यों का समन्वय भी भली भांति हो सकता है। जैसे-मनुष्य रूप शरीरात्मा में बाल, युवा और वृद्धत्वादि तथा सुख दुःखादि दोनों दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु इनमें बालत्वादि धर्म जैसे शरीर के और सुख दुःखादि आत्मा के हैं वैसे ही परब्रह्म के शरीर भूत चिदचिद्वस्तु में रहने वाले अज्ञान विकार आदि 'अनिष्ट दोष तो शरीर रूप चिदचिद्वस्तु में ही रहते हैं और निरवद्यत्वनिष्पापता-अविकारित्व सर्वज्ञत्व और सत्य संकल्पत्वादि गुण, आत्मभूत परमेश्वर में ही निवास करते हैं इसलिये किसी प्रकार का भी असामंजस्य नहीं है इत्यादि ।।
इस लेख का तात्पर्य यह है कि जड़ चेतन शरीर वाला। परमात्मा ही कार्य कारण रूप से सर्वत्र स्थित है। चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म एक अथवा अभिन्न होने पर भी विशेषण और विशेष्यगत गुणदोषों का एक दूसरे में संमिश्रण नहीं होता । जैसे शरीर विशिष्ट आत्मा की एक अथवा अभिन्न रूप से प्रतीति होने पर भी बढ़ना घटना शरीर में होता है और सुख दुःख आदि का भान आत्मा में होता है इसी प्रकार परमेश्वर के शरीर भूत जीव और प्रकृति में तो अज्ञान और विकरत्वादि दोष रहते हैं और आत्मभूत परमेश्वर में सर्वज्ञत्वादि गुण रहते हैं । परन्तु विशिष्ट एक अथवा अभिन्न ही है।
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