SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण रूप, ब्रह्म-प्रपंच के लिये उपयुक्त नहीं हो सकता । क्योंकि शीतोष्ण और छायातप में अधिकरण की भिन्नता है और ब्रह्मप्रपंच रूप कार्य कारण में वह नहीं है अर्थात् वहाँ पर तो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय-विनाश इन तीनों का ही आधारब्रह्म है...............इत्यादि । इसलिये ब्रह्म, भिन्न अथच अभिन्न उभयरूप है यह सिद्ध होगया । कार्यरूप से नानात्व-भेद और कारणरूप से एकत्व-अभेद ये दोनों अनुभव सिद्ध हैं। जैसे सुवर्ण रूप से कटक कुण्डल का आपस में अभेद और कुण्डल रूप से परस्पर में भेद प्रत्यक्ष सिद्ध है इसी प्रकार ब्रह्म में भी भेदाभेद की सिद्धि अनिवार्य है। इसके सिवाय भास्कराचार्य ने और भी एक दो स्थानों में भेदाभेद की चर्चा की है । यथा-"अधिकंतुभेद निर्देशात्" [२।१ । २२ ] सूत्र के भाष्य में-"यथा चाऽत्यन्तभिन्नो जीवो न भवति तथा वक्ष्यामः । ननुभेदाभेदो कथं परस्पर विरुद्धौ सम्भवेतां नैष दोषः प्रमाणतश्वेत् प्रतायेत को विरोधोऽयमुच्यते । विरोधे चाविरोधे च प्रमाणं कारणं मतम् ।। . (पृ० १०३) तथा-" नस्थानतोपि परस्योभयलिंगं सर्वत्रहि " (३ । २ । १२ ) इस सूत्र के भाष्य में आप लिखते हैं "भेदाभेद कपं ब्रह्मति लमधिगतं, इदानी भेदरूपं अभेद रूपं चीपास्यमुतोपसंहृत समस्त भेदमभिन्न सल्लक्षण बोध रूप मुपास्य मित्यशो विचार्यते"....(पृ० १६४ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy