________________
( ५१ )
शंकर स्वामी ने प्रवृत्ति निवृत्ति इन दो विरोधी धर्मों का प्रकृति में नहीं किंतु ईश्वर में स्वीकार किया है चलो ईश्वर में ही सही, मगर स्वीकार तो किया। बस यही अनेकान्तवाद का प्रकारान्तर से स्वीकार है । अनेकान्तवाद भी तो " परस्पर में विरुद्ध रूप से भान होने वाले धर्मों का, सापेक्षतया वस्तु में स्वीकार करने का ही नाम है । अपेक्षावाद का अवलम्बन शंकर स्वामी ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर किया है, एवं उनका अनिर्वचनीय शब्द भी प्रायः अनेकान्तवाद का ही रूपान्तर से परिचायक है ।
१
:
(१) क - परएवात्मा देहेन्द्रिय मनो बुद्धयुपाधिभिः परिच्छिद्यमानों बालैः शरीर इत्युपचर्यते । यथा घटकरकायुपाधिवशात् अपरिच्छिन्नमपिनभः परिच्छिन्न वदवभासते । तदपेक्षयाच कर्मकतृत्वादि व्यवहारो न विरुध्यते । ( ब्र० सू० शां० अ० १ पा० २ ० ६ ० १६६ )
( ख ) -- निर्गुणमपिसद्द्ब्रह्म नामरूप गतैर्गुणैः सगुणमुपासनार्थं तत्र तत्रो पदिश्यत इत्येतदयुक्तमेव । सर्वगतस्यापि ब्रह्मण उपलब्ध्यर्थं स्थान विशेषो न विरुध्यते शालग्राम इबविष्णोरित्येतदप्युक्तमेव ।
( ब्र० सू० शां० भा० अ० १ पा० २ ० १४ पृ० ११७ ) ( ग ) - नन्वभेद निर्दिशोपि दर्शितः "तत्वमसि " इत्येवंजातीयकः । कथं भेदा भेदौ विरुद्धौ संभवेयाताम् । नैषदोषः । आकाश घटाकाशन्याये • नोभयसंभवस्य तत्र तत्र प्रतिष्ठापितत्वात् ।
( शां० भा० अ० २पा० १ सू० २२ )
( वास्तवमेकत्वमौपाधिकं नानात्वमित्युभयनिर्देशोपपत्तिः )
Jain Education International
[ भानन्द गिरि: ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org