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प्रकाशकीय
'जैन दर्शन में आत्म- विचार' नामक प्रस्तुत पुस्तक पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । प्रस्तुत पुस्तक डॉ० लालचन्द जैन के उपर्युक्त विषय पर लिखे गये शोध-प्रबन्ध का ही परिष्कारित रूप है, जिस पर उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के द्वारा सन् १९७७ में पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की गई थी। डॉ० लालचन्द जैन अपने स्नातकोत्तर अध्ययन एवं शोधकार्य के दौरान पार्श्वनाथ विद्याश्रम से निकट रूप से सम्बन्धित रहे हैं, अतः उनकी ज्ञान-साधना के प्रतिफल को प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । भारतीय चिन्तन मूलतः आत्मा की खोज का प्रयत्न ही है। उसने कोऽहं से लेकर सोऽहं तक जो यात्रा की है, वह दार्शनिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । आज विज्ञान के युग में मनुष्य पदार्थ के बारे में तो बहुत कुछ जान पाया है, किन्तु वह अपने स्वरूप से अनभिज्ञ है, अतः जब तक मनुष्य अपने आपको नहीं पहचानेगा, तब तक उसका सारा बाह्य ज्ञान अर्थहीन है । 'अपने को जानो' ( Know thyself ) यह एक प्रमुख उक्ति है । प्रस्तुत कृति में लेखक ने न केवल जैनदर्शन की आत्मा सम्बन्धी अवधारणा को स्पष्ट किया है, अपितु उसने अन्य दर्शनों के साथ उसकी तुलना भी की है तथा आत्मा सम्बन्धी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा करते हुए यह दिखाने का प्रयास किया है कि इस सन्दर्भ में जैन आचार्यो Seat दृष्टिकोण कितना संगतिपूर्ण और व्यावहारिक है । प्रस्तुत कृति का वास्तविक मूल्याकंन तो पाठक स्वयं इसके अध्ययन के द्वारा ही करेंगे, अतः इस सन्दर्भ में हमारा अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा ।
प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन हेतु भाई श्री नृपराज जी के द्वारा अपने पूज्य पिता श्री शादीलाल जी जैन की पूण्य स्मृति में लायनपेन्सिल्स से जो अर्थ - सहयोग प्राप्त हुआ है, उसके लिये हम उनके एवं उनके परिवार के सभी सदस्यों के आभारी हैं । हम लेखक के भी आभारी हैं, जिसने यह कृति प्रकाशन हेतु बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा किये संस्था को समर्पित की । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन तथा उनके सहयोगी डॉ० रविशंकर मिश्र एवं डॉ० अरुणप्रताप सिंह के भी हम आभारी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक के
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