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आत्मा और कर्म-विपाक : २०१ ज्ञानावरण कर्म के पांच ही भेद क्यों : यहाँ प्रश्न होता है कि ज्ञानावरण कर्म के पांच ही भेद क्यों हैं ? वीरसेन ने धवला में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानों के अलावा ज्ञान के अन्य भेद नहीं होते हैं, इसलिए उनके आवरण करने वाले कर्म भी पाँच प्रकार से अधिक नहीं होते हैं । कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान का अन्तर्भाव क्रमशः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में हो जाता है। उपर्युक्त पांच ज्ञानावरण कर्म में से आदि के चार कर्म सर्वघाती हैं।
२. दर्शनावरण कर्म : पदार्थ के सामान्य धर्म का बोध जिस कर्म के कारण नहीं होता है, उसे आचार्य पूज्यपाद ने दर्शनावरण कर्म कहा है ।२ दर्शनावरण कर्म के उदय होने से आत्मा का दर्शनगुण आच्छादित हो जाता है । इस कर्म की उपमा राजा के द्वारपाल से की गयी है । जिस प्रकार पहरेदार शासक को देखने के लिए उत्सुक व्यक्तियों को रोक देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणकर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डाल कर उसे प्रकट होने से रोकता है।
दर्शनावरण कर्म के भेद : आगम में दर्शनावरण कर्म के नौ भेद बतलाये गये हैं :-१. चक्षु दर्शनावरण, २. अचक्षु दर्शनावरण, ३. अवधि दर्शनावरण, ४. केवल दर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रानिद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचला-प्रचला और ९. स्त्यानगृद्धि । जिस दर्शनावरण कर्म के उदय से चाइन्द्रिय से होने वाला सामान्य बोध नहीं हो पाता है, उसे चक्षुदर्शनावरण कर्म कहते हैं । चक्षु इन्द्रिय के अलावा अन्य इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाला सामान्य बोध जिसके उदय से न हो सके, उसे अचक्षुदर्शनावरण कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्यों का सामान्य बोध न हो सके, उसे अवधिदर्शनावरण कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को समस्त द्रव्य और पर्यायों का युगपत् सामान्य बोध न हो, उसे केवलदर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
__ मद, खेद और परिश्रम-जन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेने को पूज्यपाद ने निद्रा कहा है ।६ निद्रा कर्म के उदय से जीव हल्की नींद सोता है,
१. धवला, पु० ७, खं० २, भा० १, सू० ४५, पृ० ८७ । २. सर्वार्थसिद्धि, ८१३, पृ० ३७८ ।। ३. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० २१ । ४. षट्खण्डागम, पु०६, खं० १, भा० ९-११, सू० १६ । त० सू०, ८७ । ५. तत्त्वार्थवार्तिक, ८1८।१२-१६, पृ० ५७३ । ६. सर्वार्थसिद्धि, ८७, पृ० ३८३ ।
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