SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० : जैनदर्शन में आत्म-विचार डालने पर वह गीला नहीं होता है, किन्तु बार-बार सींचने पर अन्त में अवश्य ही गीला हो जाता है । इसी प्रकार स्पर्शन, रसन, प्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के विषय का स्पर्श होकर भी वह दो तीन समयों तक व्यक्त नहीं होता है, लेकिन पुनः पुनः विषय का स्पर्श होते रहने से विषय का ज्ञान व्यक्त हो जाता है । " अतः अर्थावग्रह के पहले होने वाला अव्यक्तज्ञान व्यंजनावग्रह और व्यंजनावग्रह के बाद होने वाला व्यक्तज्ञान अर्थावग्रह है । व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह में दूसरा अन्तर यह है कि व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों से होता है और अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों और मन से होता है । गोम्मटसार, tatantus और उसकी टीकाओं तथा धवला आदि में इसका विस्तृत विवेचन किया गया है । हा : ईहा को ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा एवं मीमांसा भी कहते हैं । अवग्रह द्वारा जाने गये पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को पूज्यपाद आदि आचार्यों ने ईहा कहा है ।" उदाहरणार्थ अवग्रह से ज्ञान हुआ 'यह पुरुष हैं, इसके बाद यह उत्तरी है या दक्षिणी, इस प्रकार की शंका होने पर उसकी वेश-भूषा तथा भाषा के द्वारा यह दक्षिणी होना चाहिए, ऐसा चिन्तन ईहा ज्ञान कहलाता है । ईहा ज्ञान संशय नहीं है क्योंकि संशय की तरह हा उभय कोटि स्पर्शी नहीं है । ईहा का एक कोटि की ओर झुकाव होता है । भट्टाकलंक देव ने इसका विस्तृत विवेचन किया है। अवाय : यह मतिज्ञान का तीसरा भेद है । षट्खण्डागम में अवाय को व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, अमुण्डा, प्रत्यामुण्डा भी कहा है । नन्दिसूत्र में अवाय को आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता और विज्ञान कहा गया है । ' तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वामी ने अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध और अपनुत १. सर्वार्थसिद्धि, १।१८ । २. (क) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), ३०६, ३०७। (ख) धवला, ९ । ४ । १ । ४५ । ३. न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्, तत्त्वार्थसूत्र, १११९ । ४. ( क ) षट्खण्डागम, १३।५।५।३८ । (ख) नन्दिसूत्र, सूत्र ५२ । (ग) तर्कभाषा, १।१५ । ५. ( क ) सर्वार्थसिद्धि, ११५, । (ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), ३०८ । ६. तत्त्वार्थवार्तिक, १1१५ | धवला, १३।५।५।२३-२४ । ७. षट्खण्डागम, १३।५।५।३९ । ८. नन्दिसूत्र, ५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy