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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १४९ कषायी और कषाय रहित जीव ।' किसी को बाधा देने, बंध करने और असंयम के आचरण में निमित्तभूत क्रोधादि कषायों का जिनमें अभाव है और बाह्य और आभ्यन्तर मल जिनमें नहीं हैं, उन जीवों को आचार्य नेमिचन्द्र ने अकषाय आत्मा कहा है ।२ __ ज्ञान मार्गणा : ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। यह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है 'जो जानता है वह ज्ञान है अथवा जिसके द्वारा जाना जाए वह ज्ञान है अथवा जानना मात्र ज्ञान है' । उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान के पाँच भेद किये हैं : मति ज्ञान, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल ज्ञान ।
(१) मतिज्ञान
मतिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञान के चार मुख्य भेद हैं ।६।
अवग्रह : षट्खण्डागम एवं नन्दिसूत्र में अवग्रह को अवधान, सान, आलम्बना और मेधा भी कहा गया है। विषय और विषयी का सम्बन्ध होने के बाद पदार्थ का सामान्य ज्ञान होना अवग्रह है। अवग्रह से केवल यही ज्ञात होता है कि 'यह कुछ है'। अवग्रह दो प्रकार का होता है--व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । सर्वार्थसिद्धि में बताया गया है कि अव्यक्त ग्रहण का नाम व्यंजनावग्रह है और व्यक्त ग्रहण का नाम अर्थावग्रह है ।११ इस अन्तर को पूज्यपाद ने एक रूपक द्वारा समझाया है। जिस प्रकार मिट्टी के नये सकोरे पर पानी की दो-तीन बूदें
१. षट्खण्डागम, ११११११११ । २. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), २८९ । ३. सर्वार्थसिद्धि, १।१। ४. तत्त्वार्थसूत्र, ११९। ५. तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम् । वही, १३१४ । ६. वही, १।१५ । ७. (क) षट्खण्डागम, १३।५।५।३७ ।
(ख) नन्दिसूत्र, ५१ । ८. गोम्मटसार ( जोवकाण्ड ), ३०८ । ९. सर्वार्थसिद्धि, १११५ । १०. धवला, १११।१।११५ । ११. सर्वार्थसिद्धि, १११८ ।
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