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कर्त्ता है, उपचार से ही आत्मा पुद्गल कर्म का कर्त्ता है ( ११६); पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा पुद्गल द्रव्य का कर्ता नहीं है ( ११७ ); पारमार्थिक रूप से आत्मा निज भावों का कर्ता है ( ११८); आत्मा के कर्तृत्व के विषय में सांख्यमत और उसकी समीक्षा ( ११८ ); आत्मा के भाव ( १२४ ) ; जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप सर्वज्ञता में पर्यवसित है ( १२८ ) ; चार्वाक दर्शन की मान्यता, मोमांसा दर्शन का दृष्टिकोण ( १२९); न्याय-वैशेषिक दर्शन का दृष्टिकोण, सांख्य योग दर्शन और सर्वज्ञता ( १३० ); वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता, श्रमण परम्परा में सर्वज्ञता, बौद्ध दर्शन में सर्वजता ( १३१); जैन दर्शन में सर्वज्ञता (१३२); आत्मविवेचन के प्रकार : जीव समास तथा मार्गणाएँ ( १३६ ) ; गुण स्थानों की अपेक्षा संज्ञा प्ररूपणा का विवेचन (१४४); ज्ञान मार्गणा, मतिज्ञान ( १४९); श्रुतज्ञान ( १५१ ) ; अवधि ज्ञान ( १५२ ) ; मनः पर्यय ज्ञान (१५३); केवल ज्ञान (१५५); संयम मार्गणा ( १५५ ); दर्शन मार्गणा (१५६ ); लेश्या मार्गणा (१५७); लेश्या - मार्गणा की अपेक्षा आत्मा के भेद (१५८); भव्य मार्गणा, सम्यक्त्व मार्गणा (१५९); संज्ञी - मार्गणा, आहारमार्गणा (१६१); आत्मा के भेद और उनका विश्लेषण, आत्मा के मूलतः दो भेद : संसारी और मुक्त अथवा अशुद्ध और शुद्ध (१६२); संसारी आत्मा के भेद - प्रभेद (१६३); शुद्धि - अशुद्धि की अपेक्षा से संसारी आत्मा के भेद (१६४); इन्द्रियों की अपेक्षा से संसारी आत्मा के भेद ( १६५ ); अध्यात्म की अपेक्षा से आत्मा के भेद (१७१); जैन दर्शन के आत्मा-परमात्मा के एकत्व की उपनिषदों के आत्मा और ब्रह्म के तादात्म्य के साथ तुलना (१७३) तीसरा अध्याय : आत्मा और कर्म विपाक :
कर्म सिद्धान्त का उद्भव (१७५); जैन- दार्शनिकों का मन्तव्य (१७९); कर्म का अर्थ और उसकी पारिभाषिक एवं दार्शनिक व्याख्या, कर्म का अर्थ (१८० ) ; विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं में कर्म (१८१); जैन-दर्शन में कर्म का स्वरूप (१८३ ) ; आत्मा और कर्म में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है ( १८८ ) ; कर्म - अस्तित्व साधक तर्क (१८९); कर्म की मूर्त - सिद्धि (१९१); अमूर्त आत्मा से मूर्त कर्मों की बन्ध-प्रक्रिया (१९३); कर्म की अवस्थाएँ ( १९५ ); कर्म के भेद और उसकी समीक्षा (१९८ ); जैन दर्शन में कर्म के भेद (१९८);
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