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________________ जिन-प्रतिमाविज्ञान 1 ८१ मूर्तियों में सर्वप्रथम पार्श्व का ही वैशिष्ट्य स्पष्ट हुआ। पार्श्व के बाद ऋषभ के लक्षण निश्चित हुए। मथुरा की पहली शतो ई० की जिन मूर्तियों में स्कन्धों पर लटकती जटाओं वाले ऋषभ निरूपित हैं। परवर्ती युगों में भी ऋषभ के साथ जटाएं एवं पावं के साथ सप्त सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित हैं। पहलो-दूसरी शती ई० में मथुरा में प्रचुर संख्या में जिनों की कायोत्सर्ग एवं ध्यान मुद्राओं में स्वतन्त्र मूर्तियां उत्कीर्ण हुई । ऋषभ एवं पावं के अतिरिक्त कुछ उदाहरणों में बलराम एवं कृष्ण के साथ नेमि भी उत्कीर्ण हैं। अन्य जिनों (सम्भव, मुनिसुव्रत एवं महावीर)' की पहचान केवल लेखों में उनके नामों के आधार पर की गई है। चौसा की कुषाणकालीन जिन मूर्तियों में केवल ऋषभ एवं पार्श्व की हो पहचान सम्भव है। इस युग की सभी जिन मूर्तियां निर्वस्त्र अंकित की गई हैं। इस प्रकार कुषाण काल में केवल छह ही जिन निरूपित हुए। कुषाण युग में मथुरा में ही सर्वप्रथम जिन मूर्तियों के साथ प्रातिहार्यो, धर्मचक्र,मांगलिक चिह्नों एवं उपासकों के उत्कीर्णन प्रारम्भ हुए । मथुरा में जैन परम्परा के आठ प्रातिहार्यों में से केवल सात ही प्रदर्शित हैं। ये प्रातिहार्य सिंहासन, भामण्डल, चामरधर सेवक, उड्डीयमान मालाधर, छत्र, चैत्यवृक्ष एवं दिव्य-ध्वनि हैं। जिनों की हथेलियों, चरणों एवं उंगलियों पर धर्मचक्र एवं त्रिरत्न जैसे मांगलिक चिह्न भी उत्कीर्ण हैं ।२ कभी-कभी पार्श्व के सपंफणों पर भी मांगलिक चिन्ह दष्टिगत होते हैं। मथुरा संग्रहालय की एक पाश्वं मूर्ति (बी ६२) में फणों पर श्रीवत्स, पूर्णघट, स्वस्तिक, वर्धमानक, मत्स्य एवं नंद्यावर्त अंकित हैं । कुषाण युग में जिन चौमुखी का भी निर्माण प्रारम्भ हुआ (चित्र ६६)। इनमें चारों ओर चार जिनों की मूर्तियां अंकित की जाती हैं। चार जिनों में से केवल ऋषम एवं पावं की ही पहचान सम्भव है । कुषाण यग में ऋषभ एवं महावीर के जीवनदृश्य भी उन्कीर्ण हुए। इनमें नीलांजना के नृत्य के फलस्वरूप ऋषभ की वैराग्य प्राप्ति एवं महावीर के गर्भापहरण के दृश्य हैं (चित्र १२, ३९) । गुप्तकाल में जिन प्रतिमाविज्ञान में कुछ महत्वपूर्ण विकास हुआ। जिनों के साथ लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्ट-प्रातिहार्यों का निरूपण प्रारम्भ हुआ । बृहत्संहिता (वराहमिहिरकृत) में ही सर्वप्रथम जिन मूर्ति की लाक्षणिक विशेषताएं भी निरूपित हई।" ग्रन्थ में जिन मूर्ति के श्रीवत्स चिह्न से युक्त, निर्वस्त्र, आजानुलंबबाह और तरुण स्वरूप में निरूपण का उल्लेख है। गुप्तकाल में गुजरात में (अकोटा) श्वेतांबर जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हुई (चित्र ५, ३६)। अन्य क्षेत्रों की जिन मूर्तियां दिगंबर सम्प्रदाय की हैं। राजगिर और भारत कला भवन, वाराणसी (१६१) की दो गुप्तकालीन नेमि और महावीर की मतियों में जिनों के लांछन प्रदर्शित हैं (चित्र ३५)। गुप्तकाल तक सभी जिनों के लांछनों का निर्धारण नहीं हो सका था। इसी कारण ऋषभ, नेमि, पार्श्व एवं महावीर के अतिरिक्त अन्य किसी जिन के साथ लांछन नहीं प्रदर्शित हैं । गुप्तकाल में अष्टप्रातिहार्यों का कन नियमित हो गया । भामण्डल कुषाणकाल की तुलना में अधिक अलंकृत हैं। सिंहासन के मध्य में १ ज्योतिप्रसाद जैन ने मथुरा की एक कुषाणकालीन सुमतिनाथ मूर्ति (८४ई०) का भी उल्लेख किया है-जैन, ज्योति प्रसाद, दि जैन सोर्सेज ऑव दि हिस्ट्री ऑव ऐन्शण्ट इण्डिया, दिल्ली, १९६४, पृ० २६८ २ जोशी, एन० पी०, 'यूस ऑव आस्पिशस सिम्बल्स इन दि कुषाण आर्ट ऐट मथुरा', मिराशी फेलिसिटेशन वाल्यूम, नागपुर, १९६५, पृ० ३१३ . ३ वही, पृ० ३१४ ४ राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ३५४, जे ६२६ ५ आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च।। दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्व कार्योऽहंतां देवः ।। बृहत्संहिता ५८.४५ द्रष्टव्य, मानसार ५५.४६,७१-९५ । मानसार (ल० छठी शती ई०) के अनुसार जिनमूर्ति में दो हाथ और दो नेत्र हों, मुख पर श्मश्रु न दिखाये जायें। मस्तक पर जटाजूट दिखाया जाय । श्रीवत्स से युक्त जिन-मूर्ति में शरीर आकर्षक (सूरूप) हो और किसी प्रकार का आभूषण या वस्त्र न प्रदर्शित हो। जै०क०स्था०, खं०३.१०४८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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