________________
पश्चम अध्याय
जिन-प्रतिमाविज्ञान
इस अध्याय में साहित्य और शिल्प के आधार पर जिन मूर्तियों का संक्षेप में काल एवं क्षेत्रगत विकास प्रस्तुत किया गया है जिसमें उनकी सामान्य विशेषताओं का भी उल्लेख है। साथ ही प्रत्येक जिन के मूर्तिविज्ञान के विकास का अलग-अलग भी अध्ययन किया गया है। इस प्रकार यह अध्याय २४ भागों में विभक्त है। प्रारम्भ से सातवीं शती ई० तक के उदाहरणों का अध्ययन कालक्रम में तथा उसके बाद का,क्षेत्र के सन्दर्भ में स्थानीय भिन्नताओं एवं विशेषताओं को दृष्टिगत करते हुए किया गया है । इस सन्दर्भ में प्रतिमाविज्ञान के आधार पर उत्तर भारत को तीन भागों में बांटा गया है। पहले भाग में गुजरात और राजस्थान, दूसरे में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तथा तीसरे में बिहार, उड़ीसा और बंगाल सम्मिलित हैं। यक्ष-यक्षियों के छठे अध्याय में भी यही पद्धति अपनायी गयी है।
प्रत्येक जिन के जीवनवृत्त के संक्षेप में उल्लेख के उपरान्त स्वतन्त्र मूर्तियों के आधार पर उस जिन के मूतिविज्ञान के विकास का अध्ययन किया गया है। इसमें मूर्तियों की देश और कालगत विशेषताओं का भी उद्घाटन किया गया है। साथ हो संश्लिष्ट यक्ष-यक्षी युगल की विशिष्टताओं का भी अति सामान्य उल्लेख है क्योंकि इनका विस्तृत अध्ययन आगे के अध्याय में है। अध्ययन की पूर्णता की दृष्टि से जिनों के जीवनवृत्तों के चित्रणों का भी इस अध्याय में अध्ययन किया गया है । चौबीस जिनों के अलग-अलग मूर्तिविज्ञानपरक अध्ययन के उपरान्त जिनों की द्वितीर्थी, त्रितीर्थी एवं चौमुखी (सर्वतोभद्र-प्रतिमा) मूर्तियों और चतुर्विंशति पट्टों एवं जिन-समवसरणों का भी अलग-अलग अध्ययन है । अध्ययन में आवश्यकतानुसार दक्षिण भारतीय जिन मूर्तियों से तुलना भी की गई है ।
जिन मूर्तियों में जिनों की पहचान के मुख्यतः तीन आधार हैं-लांछन, अभिलेख एवं एक सीमा तक यक्ष-यक्षी युगल । गुजरात और राजस्थान की श्वेतांबर जिन मूर्तियों में सामान्यतः लांछनों के स्थान पर पीठिका लेखों में जिनों के नामोल्लेख की परम्परा ही अधिक लोकप्रिय थी। जिनों की पहचान में यक्ष-यक्षियों से सहायता की वहीं आवश्यकता होती है जहां मूर्तियों में लांछन या तो नष्ट हो गए हैं या अस्पष्ट हैं। जिन मूर्तियों की क्षेत्रीय एवं कालगत भिन्नता भी मुख्यतः लांछन, अभिलेख एवं यक्ष-यक्षी युगल के चित्रण से ही सम्बद्ध है। जिन मूर्तियों की भिन्नता परिकर की लघु जिन आकृतियों, नवग्रहों एवं कुछ अन्य देवों के अंकन में भी देखी जा सकती है। जिन-मूर्तियों का विकास
___ ल. तीसरी शती ई० पू० से पहली शती ई० पू० के मध्य की तीन प्रारम्भिक जिन मूर्तियां क्रमशः लोहानीपुर, चौसा एवं प्रिंस आव वेल्स संग्रहालय, बंबई की हैं (चित्र २)। इनमें जिनों के वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न नहीं उत्कीर्ण है।' सभी मूर्तियां निर्वस्त्र हैं और कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ी हैं। जिन की ध्यानमुद्रा में आसीन मूर्ति सर्वप्रथम पहली शती ई० पू० के मथुरा के आयागपट (राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे २५३) पर उत्कीर्ण हुई। उल्लेखनीय है कि जिन मूर्तियों के निरूपण में केवल उपर्युक्त दो मुद्राएं, कायोत्सर्ग एवं ध्यान, ही प्रयुक्त हुई हैं।
___ल पहली शती ई०पू० की चौसा, प्रिंस ऑव वेल्स संग्रहालय, बंबई एवं मथुरा के आयागपट (राज्य संग्रहालय, लखनऊ. जे २५३) की तीन प्रारम्भिक जिन मूर्तियों में पार्श्व सर्पफणों के छत्र से आच्छादित निरूपित हैं। इस प्रकार जिन
१ वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न का अंकन जिन मूर्तियों की विशिष्टता और उनकी पहचान का मुख्य आधार है। श्रीवत्स
का अंकन सर्वप्रथम ल० पहली शती ई० पू० के मथुरा के आयागपटों की जिन मूर्तियों में हुआ। इसके उपरान्त श्रीवत्स का अंकन सर्वत्र हुआ । केवल उड़ीसा की कुछ मध्ययुगीन जिन मूर्तियों में श्रीवत्स नहीं उत्कीर्ण है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org