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________________ ૪ [ जैन प्रतिमाविज्ञान सर्वानुभूति' एवं ब्रह्मशान्ति यक्षों और अष्ट-दिक्पालों की भी कई मूर्तियां हैं। एक षड्भुज मूर्ति में ब्रह्मशान्ति यक्ष का वाहन हंस है और उसकी भुजाओं में वरदमुद्रा, अभयमुद्रा, छत्र, सनालपद्म, पुस्तक एवं कमण्डलु हैं । रंगमण्डप से सटे वितान पर इन्द्र की दशभुज मूर्तियां हैं। रंगमण्डप के उत्तर और छज्जों पर १० ऐसी मूर्तियां हैं जिनकी पहचान सम्भव नहीं है । देवकुलिका ४० के वितान पर महालक्ष्मी की जिसके चारों ओर षड्भुज अष्ट-दिक्पालों की स्थानक आकृतियां बनी हैं। दक्षिण के एक मूर्ति है प्रारम्भ की तीन देवियां विमलवसही के अधिकांश देवियां चतुर्भुज हैं और उनकी विमलवसही में १६ ऐसी देवियां हैं जिनकी पहचान सम्भव नहीं है । अतिरिक्त कुमारिया, तारंगा एवं अन्य श्वेताम्बर स्थलों पर भी लोकप्रिय थीं । निचली भुजाओं में कोई मुद्रा (अभय या वरद), एवं कमण्डलु (या फल) प्रदर्शित हैं । अतः यहां हम केवल ऊपरी भुजाओं की ही सामग्री का उल्लेख करेंगे। पहली वृषभवाहना देवी की भुजाओं में त्रिशूल एवं सर्पं हैं । दूसरी देवी की भुजाओं में त्रिशूल हैं। दोनों देवियों पर हिन्दू शिवा का प्रभाव है । तीसरी सिंहवाहना देवी की भुजाओं में अंकुश एवं पाश हैं। चौथी देवी ने पद्मकलिका एवं पाश धारण किया है। पांचवीं देवी गदा एवं पुस्तक 3, और छठीं देवी पुस्तक एवं त्रिशूल से युक्त हैं । सातवीं गजवाहना देवी की भुजाओं में अंकुश हैं। आठवीं देवी के हाथों में गदा और पाश, और नवीं देवी के हाथों में कलश हैं। दसवीं गोवाहना देवी की भुजाओं में ध्वज है । ग्यारहवीं देवी की भुजाओं में त्रिशूल - घंट, और बारहवीं देवी की भुजाओं में धन का थैला है । तेरहवीं सिंहवाहना देवी की भुजाओं में पाश हैं । चौदहवीं सिंहवाहना देवी वज्र एवं मुसल से युक्त हैं । पन्द्रहवीं षड्भुज देवी का वाहन मृग है, और उसके करों में शंख एवं धनुष हैं । सोलहवीं गजवाहना देवी ने शंख एवं चक्र धारण किया है । रंगमण्डप के समीप के अर्धमण्डप के वितान पर भरत एवं बाहुबली के युद्ध, और बाहुबली की तपश्चर्या के अंकन हैं । समीप ही आर्द्रकुमार की कथा भी उत्कीर्ण है । देवकुलिका २९ के वितान पर कृष्ण के जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं, जैसे कालियदमन, चाणूर-युद्ध, कन्दुकक्रीड़ा के दृश्य भी उत्कीर्ण हैं । देवकुलिका ४६ के वितान पर पोडशभुज नरसिंह की मूर्ति है । नरसिंह को हिरण्यकश्यपु का उदर विदीर्ण करते हुए दिखाया गया है । लूणवसही - आबू (सिरोही) स्थित लूणवसही का निर्माण चौलुक्य शासक वीरधवल के महामन्त्री तेजपाल ने १२३० ई० (वि० सं० १२८७) में कराया ।" यह श्वेताम्बर मन्दिर नेमिनाथ को समर्पित है । लूणवसही की भ्रमन्तिका में १२३६ ई० के मध्य की जैन मूर्तियां सुरक्षित हैं । कुछ रथिकाओं में समान ही लूणवसही में भी जिनों, महाविद्याओं, अम्बिका यक्षी एवं कुल ४८ देवकुलिकाएं हैं, जिनमें १२३० ई० से - १२४० ई० की भी मूर्तियां हैं। विमलवसही के शान्तिदेवी की मूर्तियां और जिनों एवं कृष्ण के जीवनदृश्य हैं । जिन मूर्तियों की सामान्य विशेषताएं विमलवसही और कुंभारिया की जिन मूर्तियों के समान हैं । मूलनायक के पार्श्व में कायोत्सर्ग में जिनों के उत्कीर्णन की परम्परा यहां लोकप्रिय नहीं थी । गर्भगृह की नेमि मूर्ति के अतिरिक्त अन्य किसी उदाहरण में लांछन नहीं उत्कीर्ण है । केवल सुपार्श्व एवं पार्श्व के साथ सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित हैं । अन्य जिनों की पहचान केवल पीठिका लेखों में उत्कीर्ण नामों के आधार पर की गई है। सभी जिनों के साथ यक्ष-यक्षी रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं । रंगमण्डप के वितान पर ध्यानस्थ जिनों की ७२ मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । यह वर्तमान, भूत एवं भविष्य जिनों का सामूहिक अंकन प्रतीत होता है। ऐसा ही एक पट्ट देवकुलिका ४१ में भी सुरक्षित है । हस्तिशाला में दोन मंजिल की एक जिन चौमुखी सुरक्षित है । देवकुलिकाओं के वितानों पर जिनों के जीवनदृश्य हैं । देवकुलिका ९ और १ सर्वानुभूति यक्ष की सर्वाधिक मूर्तियां हैं । २ प्रथम दो देवियों के अतिरिक्त अन्य देवियों की मूर्तियां केवल प्रवेश द्वारों पर ही हैं । ३ रंगमण्डप की काली मूर्ति से तुलना के आधार पर इसे काली से पहचाना जा सकता है । ४ जयन्तविजय, मुनिश्री, पू०नि०, पृ० ५६-६३ ५ वही, पृ० ९१-९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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