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[ जैन प्रतिमाविज्ञान शान्तिनाथ मन्दिर की मूर्तियां केवल अधिष्ठान पर उत्कीर्ण हैं। इनमें चतुर्भुज महाविद्याओं, शान्तिदेवी, सरस्वती एवं यक्षों की मूर्तियां हैं । वरदमुद्रा, त्रिशूल, सर्प एवं जलपात्र; और वरदमुद्रा, दण्ड, पद्म एवं जलपात्र से युक्त दो देवताओं की सम्भावित पहचान क्रमशः ईश्वर और ब्रह्मशान्ति यक्षों से की जा सकती है। महाविद्याओं में केवल रोहिणी, वज्रांकुशी' एवं अप्रतिचक्रा' की ही मूर्तियां हैं। दो उदाहरणों में देवियों की पहचान सम्भव नहीं है । पहली देवी वरदमुद्रा, अंकुश एवं जलपात्र, और दूसरी वरदमुद्रा, पाश, पद्म एवं धनुष (?) से युक्त है। वेदिकाबन्ध पर काम-क्रिया में रत ५० युगलों की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं।
आबू
विमलवसही-आबू (सिरोही) स्थित विमलवसही आदिनाथ को समर्पित है । यह श्वेताम्बर मन्दिर अपने शिल्प वैभव के लिए विश्व प्रसिद्ध है। विमलवसही के मूलप्रासाद और गूढ़मण्डप चौलुक्य शासक भीमदेव प्रथम के दण्डनायक विमल द्वारा ग्यारहवीं शती ई० के प्रारम्भ (१०३१ई०) में बनवाये गये। रंगमण्डप, भ्रमिका और ५४ देवकुलिकाओं का निर्माण कुमारपाल के मन्त्री पृथ्वीपाल एवं पृथ्वीपाल के पुत्र धनपाल के काल (११४५-८९ ई०) में हुआ।
कुंभारिया के जैन मन्दिरों की भांति विमलवसही की जिन मूर्तियां भी मूलप्रासाद, गढ़मण्डप एवं देवकूलिकाओं में स्थापित हैं । देवकूलिकाओं की जिन मूर्तियों पर १०६२ ई० से ११८८ ई० के लेख हैं। विमलवसही की जिन मूर्तियों की सामान्य विशेषताएं कुंभारिया की जिन मूर्तियों के समान हैं। अधिकांशतः जिन ध्यानमुद्रा में आसीन हैं। सिंहासन के मध्य की शान्तिदेवी की भुजाओं में वरदमुद्रा, पद्म, पद्म (या पुस्तक) एवं कमण्डलु हैं। सुपार्श्व और पार्श्व के साथ क्रमशः पांच और सात सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित हैं। अन्य जिनों की पहचान के आधार पीठिका लेखों में उत्कीर्ण उनके नाम हैं। पार्श्ववर्ती चामरधरों की एक भुजा में चामर है और दूसरी में घट है या जानु पर स्थित है। मूलनायक के पाश्र्थों में जिन मूर्तियों के उत्कीर्ण होने पर चामरधरों की मूर्तियां मूर्ति छोरों पर बनी हैं । मूलनायक के पावों में सामान्यतः सुपार्श्व या पार्श्व निरूपित हैं। ऊपर दो ध्यानस्थ जिन भी आमूर्तित हैं। सिंहासन छोरों पर यक्ष-यक्षो युगल निरूपित हैं । ऋषभ, सुपार्श्व एवं पार्श्व की कुछ मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य उदाहरणों में सभी जिनों के साथ यक्ष-यक्षी रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं। देवकूलिकाओं एवं गढ़मण्डप के दहलीजों पर भी सर्वानुभूति एवं अम्बिका ही हैं। गर्भगृह एवं देवकुलिका २१ की दो ऋषभ मूर्तियों में यक्ष-यक्षी गोमुख एवं चक्रेश्वरी हैं। देवकुलिका १९ की सुपार्श्व मूर्ति में गजारूढ़ यक्ष सर्वानुभूति है पर यक्षी पारम्परिक है । देवकुलिका ४ की पार्श्व मूर्ति (११८८ ई०) में यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र एवं पद्मावती हैं।
...... देवकूलिका १७ में एक जिन चौमुखी है। पोठिका लेखों के आधार पर चौमुखी के तीन जिनों की पहचान क्रमशः ऋषभ, चन्द्रप्रभ एवं महावीर से सम्भव है। तीन जिनों के साथ यक्ष-यक्षी सर्वानुभति एवं अम्बिका हैं, पर ऋषभ के साथ
१ गजारूढ़ एवं वरदमुद्रा, अंकुश (?), पाश और जलपात्र से युक्त । २ वरदमुद्रा, चक्र, चक्र एवं जलपात्र से युक्त । ३ पूर्व-मध्यकालीन कुछ जैन ग्रन्थों में भी ऐसे उल्लेख हैं जिनसे कलाकारों ने काम-क्रिया से सम्बन्धित मूर्तियों के जैन
मन्दिरों पर अंकन की प्रेरणा प्राप्त की होगी-हरिवंशपुराण (जिनसेन कृत) २९.१-५। . . ४ जयन्तविजय, मुनिश्री, होली आबू (अनु० यू० पी० शाह), भावनगर, १९५४, पृ० २८-२९; ढाकी, एम० ए०,
'विमलवसही की डेट की समस्या' (गुजराती), स्वाध्याय, खं० ९, अं० ३, पृ० ३४९-६४ ५ मूलनायक की मूर्तियां अधिकांश उदाहरणों में गायब हैं। ६ एक जिन चौमुखी (देवकुलिका १७) में वज्रांकुशी भी उत्कीर्ण है। ७ गूढमण्डप के दक्षिणी प्रवेश-द्वार पर चक्रेश्वरी उत्कीर्ण है।
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