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________________ ४२ [ जैन प्रतिमाविज्ञान विमलवसही एवं कुंभारिया के शान्तिनाथ मन्दिर में है ( चित्र १४ ) । भरत की स्वतन्त्र मूर्तियां केवल देवगढ़ (१० वीं१२ वीं शती ई०) १ में और बाहुबली की स्वतन्त्र मूर्तियां (९ वीं - १२ वीं शती ई०) जूनागढ़ संग्रहालय, देवगढ़ ( मन्दिर २, ११ एवं साहू जैन संग्रहालय, देवगढ़), खजुराहो ( पार्श्वनाथ मन्दिर), बिल्हरी ( म०प्र०) एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ ( क्र० ९४०) में हैं ( चित्र ७०, ७१ - ७५ ) 13 देवगढ़ में बाहुबली को विशेष प्रतिष्ठा प्रदान की गई। इसी कारण एक त्रितीर्थी मूर्ति में बाहुबली दो जिनों (मन्दिर २ चित्र ७५ ) एवं एक अन्य में यक्ष-यक्षी युगल ( मन्दिर ११ ) के साथ निरूपित हैं । जिनों के माता-पिता जिनों के माता-पिता की गणना महान् आत्माओं में की गई है । समवायांगसूत्र में वर्णित माता-पिता की सूची ही कालान्तर में स्वीकृत हुई । ग्रन्थों में जिनों की माताओं की उपासना से सम्बन्धित उल्लेख पिताओं की तुलना में अधिक हैं । जैन शिल्प एवं चित्रों में भी जिनों की माताओं के चित्रण की परम्परा ही विशेष लोकप्रिय थी, जिसका प्राचीनतम उदाहरण ओसिया (१०१८ ई०) से प्राप्त होता है । अन्य उदाहरण पाटण, आबू, गिरनार, कुंभारिया ( महावीर मन्दिर ) एवं देवगढ़ से प्राप्त होते हैं । इनमें प्रत्येक स्त्री आकृति की गोद में एक बालक अवस्थित है । २४ जिनों के माता-पिता के सामूहिक चित्रण के प्रारम्भिक उदाहरण (११वीं शती ई०) कुंभारिया के शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों के वितानों पर उत्कीर्ण हैं । इनमें आकृतियों के नीचे उनके नाम भी उल्लिखित हैं । पंच परमेष्ठि जैन देवकुल के पंचपरमेष्ठियों में अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु सम्मिलित थे ।" पंचपरमेष्ठियों में से प्रथम दो मुक्त आत्माएं हैं, जिनमें अर्हत् शरीर युक्त और सिद्ध निराकार हैं । तीर्थों की स्थापना कर कुछ अर्हत् तीर्थंकर कहलाते हैं | पंचपरमेष्ठियों के पूजन की परम्परा काफी प्राचीन है। परवर्ती युग में सिद्धचक्र या नवदेवता के रूप में इनके पूजन की धारणा विकसित हुई। पंचपरमेष्ठियों में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु की मूर्तियां (१०वीं - १२वीं शती ई० ) विमलवसही, लूणवसही, कुंभारिया, ओसिया (देवकुलिका), देवगढ़, खजुराहो एवं ग्वालियर से प्राप्त होती हैं । दिक्पाल दिशाओं के स्वामी दिक्पालों या लोकपालों का पूजन वास्तुदेवताओं के रूप में भी लोकप्रिय था । ल० आठवींनवीं शती ई० में जैन देवकुल में दिक्पालों की धारणा विकसित हुई । दिक्पालों के प्रतिमानिरूपण से सम्बन्धित प्रारंभिक उल्लेख निर्वाणकलिका एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह में हैं । पर जैन मन्दिरों पर इनका उत्कीर्णन ल० नवीं शती० ई० में ही प्रारम्भ हो गया जिसका एक उदाहरण ओसिया के महावीर मन्दिर पर है। जैन शिल्प में अष्ट-दिक्पालों का उत्कीर्णन ही लोकप्रिय १ मन्दिर २ एवं मन्दिर १२ की चहारदीवारी २ तिवारी, एम० एन० पी०, 'ए नोट आन सम बाहुबली इमेजेज फ्राम नार्थं इण्डिया', ईस्ट वे०, खं०२३, अं०३-४, पृ० ३४७-५३ ३ शाह, यू० पी०, 'पेरेण्ट्स ऑव दि तीर्थंकरज', बु०प्रि०वे०म्यू० वे०इं०, अं० ५, १९५५-५७, पृ० २४-३२ ४ समवायांगसूत्र १५७ ५ पंचपरमेष्ठि जैन देवकुल के पांच सर्वोच्च देव हैं। इन्हें जिनों के समान महत्व प्राप्त था - शाह, यू०पी०, 'बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकनोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ० ८-९ ६ ल० नवीं शती ई० में पंचपरमेष्ठिन् की सूची में चार पूजित पदों के रूप में श्वेतांबर सम्प्रदाय में ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप को; एवं दिगंबर सम्प्रदाय में चैत्य ( जिन प्रतिमा), चैत्यालय (जिन मन्दिर), धर्मचक्र और श्रुत ( जिनों की शिक्षा) को सम्मिलित किया गया । ७ भट्टाचार्य, बी० सी०, जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ० १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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