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________________ २६ [ जैन प्रतिमाविज्ञान गोष्ठी द्वारा वर्धमान की प्रतिमा के प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है ।' अर्थुणा के एक लेख (११०९ ई०) में उल्लेख है कि वहां नगर महाजन भूषण ने ऋषभनाथ के मन्दिर का निर्माण करवाया । जालोर के एक लेख (११८२ ई०) में अपने भाई एवं गोष्ठी के सदस्यों के साथ श्रीमालवंश के सेठ यशोवीर द्वारा एक मण्डप के निर्माण का उल्लेख है । जालोर के एक अन्य लेख (११८५ ई०) से ज्ञात होता है कि भण्डारि यशोवीर ने कुमारपाल निर्मित पार्श्वनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया । ३ राजस्थान उत्तर भारत के विभिन्न भागों से स्थल मार्ग से सम्बद्ध था, जो व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण था 13 राजस्थान के व्यापारी देश के विभिन्न भागों के अतिरिक्त विदेशों के साथ भी व्यापार करते थे । राजस्थान के साहित्य में दो बन्दरगाहों, शूर्पारक ( आधुनिक सोपारा) और ताम्रलिप्ति ( आधुनिक तामलुक) का अनेकशः उल्लेख प्राप्त होता है, जहां से राजस्थान के व्यापारी स्वर्णद्वीप, चीन, जावा जैसे देशों में व्यापार के लिए जाते थे । उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश में जैन धर्मं को राजकीय समर्थन के कुछ प्रमाण केवल देवगढ़ से ही प्राप्त होते हैं । देवगढ़ के मन्दिर १२ ( शान्तिनाथ मन्दिर) के अर्धमण्डप के एक स्तम्भ लेख (८६२ ई०) में प्रतिहार शासक भोजदेव के शासन काल और लुअच्छगिरि (देवगढ़) के शासक महासामन्त विष्णुराम का उल्लेख है ।" लेख में 'गोष्टिक - वजुआगगाक' का भी नाम है, जो मन्दिर की व्यवस्थापक समिति का सदस्य था । ९९४ ई० एवं ११५३ ई० के देवगढ़ के दो अन्य लेखों में क्रमशः 'श्रीउजरवट-राज्ये' एवं 'महासामन्त श्री उदयपालदेव' के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनके विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है । देवगढ़ के विभिन्न लेखों से स्पष्ट है कि वहां के अधिकतर मन्दिर एवं मूर्तियां मध्यमवर्ग के लोगों के दान एवं सहयोग के प्रतिफल हैं । व्यापार की दृष्टि से भी देवगढ़ का महत्व स्पष्ट नहीं है । किन्तु ४०० वर्षों तक लगातार प्रभूत संख्या में निर्मित होने वाली जैन मूर्तियां क्षेत्र की अच्छी आर्थिक स्थिति और देवगढ़ के धार्मिक महत्व की सूचक हैं। यहां के लेखों में दिगम्बर सम्प्रदाय के कुछ महत्वपूर्ण आचार्यों (वसन्तकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकीर्ति) तथा कुछ ऐसे आचार्यों के नाम जो जैन परम्परा में अज्ञात हैं, प्राप्त होते हैं । कुछ प्रमुख जैन स्थलों की व्यापारिक पृष्ठभूमि का ज्ञान भी अपेक्षित है । प्रमुख नगर होने के अतिरिक्त कौशाम्बी, श्रावस्ती, मथुरा एवं वाराणसी की स्थिति व्यापारिक मार्ग पर थी । भड़ौच से आनेवाले मार्ग के कारण कौशाम्बी का विशेष व्यापारिक महत्व था । ७ कौशाम्बी से कोशल और मगध तथा माहिष्मती के माध्यम से दक्षिणापथ एवं विदिशा को मार्ग जाते थे । जैन परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ, महावीर, आर्यं सुहस्ति तथा महागिरि ने कौशाम्बी ( वत्स ) की यात्रा की थी । श्रावस्ती भी व्यापारिक महत्व की नगरी थी । " मध्य प्रदेश मध्य प्रदेश में व्यापारिक समृद्धि के अनुकूल वातावरण के साथ ही विभिन्न राजवंशों के धर्म सहिष्णु शासकों द्वारा दिया गया समर्थन भी जैन धर्म को प्राप्त था । प्रतिहार शासकों के काल में ही दसवीं शती ई० के प्रारम्भ में ग्यारसपुर में मालादेवी जैन मन्दिर निर्मित हुआ । परमार शासकों के जैन धर्म के प्रश्रयदाता होने की पुष्टि धनपाल, धनेश्वर सूरि, अमितगति, प्रभाचन्द्र, शान्तिषेण, राजवल्लभ, शुभशील, महेन्द्रसूरि जैसे जैन आचार्यों के उनके दरबार में होने से होती है । १ जयन्तविजय (सं०), अर्बुद प्राचीन जैन लेख सन्दोह, भाग ५, पृ० १६८, लेख सं० ४८६ २ एपि० इण्डि०, ख० ११ पृ० ५२-५४ ३ मोती चन्द्र, पू०नि०, पृ० २३ ४ शर्मा, दशरथ, पू०नि०, पृ० ४९२; गोपाल, एल०, पू०नि०, पृ० ९१ शर्मा, ब्रजेन्द्रनाथ, पू०नि०, पृ० १४९ ५ एपि० इण्डि०, खं०४, पृ० ३०९-१० ६ जि०इ० दे०, पृ० ६१ ८ जैन, जे० सी० पू०नि०, पृ० २५४ " ७ मोतीचन्द्र, पू०नि०, पृ० १५–१७, २४ ९ मोतीचन्द्र, पू०नि०, पृ० १७-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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