________________
राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ]
मानलदेवी के साथ मन्दिर को दान देने का उल्लेख है। केल्हण (११६१-९२ ई.) के शासनकाल के ६ जैन अभिलेखों में भी विभिन्न जैन मन्दिरों को दिए गए दानों का उल्लेख है। केल्हण की माता ने भी महावीर मन्दिर के लिए भूमिदान किया था।
परमार शासकों ने भी जैन धर्म एवं कला को संरक्षण दिया। कृष्णराज के शासनकाल में एक गोष्टी द्वारा वर्धमान की मूर्ति स्थापित की गई। धारावर्ष की रानी शृंगार देवी ने झालोडी के महावीर मन्दिर को भूमिदान दिया । कुंकण (सम्भवतः आबू के परमार, शासक अरण्यराज का मन्त्री) ने चन्द्रावती में किसी जिन मन्दिर का निर्माण करवाया। गुहिल शासक अल्लट के एक मन्त्री ने आघाट (अहार) में पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया।
जैन धर्म को हस्तिकुण्डी के राष्ट्रकूट शासकों का भी समर्थन प्राप्त था। हरिवर्मन के पुत्र विदग्धराज ने हस्तिकूण्डी में ऋषभदेव का मन्दिर बनवाया और उसे भूमिदान किया। उसके पुत्र एवं पौत्र मम्मट तथा धवल ने भी इस मन्दिर को दान दिया।" बयाना के शूरसेन शासक कुमारपाल ने शान्तिनाथ मन्दिर (११५४ई०) के शिखर पर स्वर्णकलश स्थापित किया था। शूरसेन शासकों ने प्रद्युम्नसूरि, धनेश्वरसूरि एवं दुर्गदेव जैसे जैन आचार्यों का सम्मान भी किया था। जैसलमेर राज्य की राजधानी लोद्रवा के शासक सागर के समय में जिनेश्वरसूरि वहां (९९४ ई०) पधारे थे और सागर के दो पुत्रों. श्रीधर एवं राजधर ने वहां एक पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।
___ शासकों के अतिरिक्त उद्योतनसूरि, बप्पमट्टिसूरि, हरिभद्रसूरि, सिद्धर्षिसूरि, जिनेश्वरसूरि, धनेश्वरसूरि, अभयदेव, आशाधर, जिनदत्तसूरि, जिनपाल और सुमतिगणि जैसे जैन आचार्यों ने भी जैन धर्म के प्रचार और प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
राजस्थान में व्यापार काफी समुन्नत स्थिति में था। राजस्थान से सम्बन्धित सभी प्रमुख वणिक वंशों ने जिनका मुख्य व्यवसाय व्यापार था, जैन धर्म स्वीकार किया था । जैन धर्म स्वीकार करनेवाले वणिक वंशों में आबू के पूर्वी क्षेत्र के प्राग्वाट् (पोरवाड़), उकेश (ओसिया) के उकेशवाल (ओसवाल), भिन्नमाल (श्रीमाल) के श्रीमाली, पल्लिका (पाली) के पल्लिवाल, मोरढेरक (मोढेरा) के मोढ एवं गुर्जर मुख्य हैं।'
अभिलेखिक साक्ष्यों से व्यापारियों एवं उनकी गोष्ठियों के भी जैन धर्म एवं कला को संरक्षण प्रदान करने की पुष्टि होती है। ओसिया के महावीर मन्दिर के लेख में मन्दिर की गोष्ठी का उल्लेख है। लेख में जिनदक नाम के व्यापारी द्वारा ९९६ ई० में बलानक के पुनरुद्धार कराने की भी चर्चा है। बीजापुर लेख (१०वीं शती ई०) से हस्तिकुण्डी की गोष्ठी द्वारा स्थानीय ऋषभदेव मन्दिर के पुनरुद्धार करवाने का ज्ञान होता है। दियाणा के शान्तिनाथ मन्दिर के लेख (९६७ई०) में एक
१ एपि० इण्डि०, खं० ११, पृ० ३४; जै०शि०सं०, भाग ४, पृ० १५९ २ एपि०इण्डि०, खं० ९, पृ० ४६-४९ ३ जयन्तविजय (सं०), अर्बुद प्राचीन जैन लेख सन्दोह, भाग ५, मावनगर, वि०स०२००५, पृ०१६८, लेख सं०४८६ ४ ढाकी, एम० ए०, पू०नि०, १० २९८
५ नाहर, पी० सी०, पू०नि०, लेख सं०८९८ ६ जैन, के० सी०, पू०नि०, पृ० २८ ७ नाहर, पी० सी०, जैन इन्स्क्रिप्शन्स, भाग ३, १९२९, पृ० १६०, लेख सं० २५४३ ८ ढाकी, एम० ए०, पू०नि०, पृ० २९८ ९ भण्डारकर, डी० आर०, आ०स०ई०ऐ०रि०, १९०८-०९, पृ०१०८; नाहर, पी० सी०,जैन इन्स्क्रिप्शन्स, भाग १,
पृ० १९२-९४ १० एपि०इण्डि०, खं० १०, पृ० १७ और आगे, लेख सं० ५; नाहर, पी० सी०, जैन इन्स्क्रिप्शन्स, भाग १, पृ० २३३,
लेख सं० ८९८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org