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________________ [जैन प्रतिमाविज्ञान (=७६९ ई०) में पुनः उसका जीर्णोद्धार करवाया। इस परवर्ती साहित्यिक परम्परा की एक कुषाणकालीन तीर्थकर मूर्ति से पुष्टि होती है, जिसकी पीठिका पर यह लेख (१६७ ई०) है कि यह मूर्ति देवनिर्मित स्तूप में स्थापित की गयी। मथुरा में तीनों प्रमुख धर्मों ( ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ) में आराध्य देवों के मूर्त अंकनों के मूल में भक्ति आन्दोलन ही था। जिन मूर्ति का निर्माण मौर्य युग में ही प्रारम्भ हो चुका था पर उनके निर्माण की क्रमबद्ध परम्परा मथुरा में शंग-कुषाण युग से प्रारम्भ हुई। तात्पर्य यह कि जैन धर्म में मूर्ति पूजा का प्रारम्भ जैन धर्म की जन्मस्थली बिहार में न होकर भक्ति की जन्मस्थली मथुरा में हुआ। ईसा के कई शताब्दी पूर्व ही मथुरा वासुदेव-कृष्ण पूजन से सम्बद्ध भक्ति सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र बन चुका था । जैन धर्म में मूर्ति निर्माण पर भागवत सम्प्रदाय के प्रभाव की पुष्टि कुछ कुषाणकालीन जिन मूर्तियों में कृष्ण-वासुदेव एवं बलराम के उत्कीर्णन से भी होती है । ___शुंग शासकों द्वारा जैन धर्म एवं कला को समर्थन के प्रमाण नहीं प्राप्त होते। कुषाण युग में भी जैन धर्म को राजकीय समर्थन के प्रमाण नहीं प्राप्त होते । पर शासकों की धर्म सहिष्णु नीति मथुरा में जैन धर्म एवं कला के विकास में सहायक रही है। कुषाण युग में मथुरा में प्रचुर संख्या में जैन मूर्तियों का निर्माण हुआ और जैन प्रतिमाविज्ञान की कई विशेषताओं का सर्वप्रथम निरूपण एवं निर्धारण हुआ।४ जैन कला के विकास की इस पृष्ठभूमि में मथुरा के शासक वर्ग व्यापारियों एवं सामान्य जनों का समर्थन रहा है । एक लेख में ग्रामिक जयनाग की पत्नी सिंहदत्ता (दत्ता) के एक आयागपट दान करने का उल्लेख है ।" एक अन्य लेख में गोतिपुत्र की पत्नी शिवमित्रा द्वारा जैन मूर्ति निर्माण का उल्लेख हैं। कुछ जैन मूर्ति लेखों में ब्राह्मणों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। मथुरा के लेखों से जैन मूर्ति निर्माण में स्त्रियों के योगदान का भी ज्ञान होता है । जैन लेखों में अकका, ओघा, ओखरिका और उझटिका जैसे स्त्री नाम विदेशी मूल के प्रतीत होते हैं। कुषाण शासन में आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था के कारण व्यापार को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । देश में और विशेषतः विदेशों में होने वाले व्यापार से व्यापारियों एवं व्यवसायियों ने प्रभूत धन अर्जित किया, जिसे उन्होंने धार्मिक स्मारकों एवं मूर्तियों के निर्माण में भी लगाया । मथुरा प्रमुख व्यापारिक केन्द्र के साथ कुषाण शासकों की दूसरी राजधानी और कनिष्क के समय कला का सबसे बड़ा केन्द्र भी था। मथुरा से प्राप्त तीनों सम्प्रदायों की मूतयों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि राजकीय संरक्षण के अभाव में भी जैन मूर्तियों की संख्या बौद्ध एवं हिन्दू मूतियों की तुलना में ल्यूडर द्वारा प्रकाशित मथुरा के कुल १३२ लेखों में से ८४ जैन और केवल ३३ बौद्ध मूर्तियों से सम्बद्ध हैं। शेष लेखों का इस प्रकार का निर्धारण सम्भव नहीं है।' मथुरा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण देश के लगभग सभी व्यापारिक महत्व के स्थलों, राजगृह, तक्षशिला, उज्जैन, भरुकच्छ, शपरिक, से जुड़ा था जो आर्थिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। जैन ग्रन्थों में मथुरा का प्रसिद्ध १ विविधतीर्थकल्प, पृ० १८-१९ २ राज्य संग्रहालय, लखनऊ : जे२० । लेखक को देवनिर्मित शब्द का सन्दर्भ कई मध्ययुगीन मूति-अभिलेखों में भी देखने को मिला है। ३ अग्रवाल, वी० एस०, इण्डियन आर्ट, भाग १, वाराणसी, १९६५, पृ० २३० ४ इनमें जिनों की बहुसंख्यक मूर्तियां, ऋषभ एवं महावीर के जीवनदृश्य, चौमुख, नगमेषी, सरस्वती आदि प्रमुख हैं। ५ विजयमूर्ति (सं०), जै०शि०सं०, भाग २, बम्बई, १९५२, पृ० ३३-३४, लेख सं० ४२ ६ एपि०इण्डि०, खं० १, लेख सं० ३३ ७ एपि०इण्डि०, खं० १, पृ० ३७१-९७; खं० २, पृ० १९५-२१२; खं० १९, पृ० ६७ ८ ल्यूजे-डे-ल्यू, जे०ई०वान, दि सीथियन पिरियड, लिडेन, १९४९, पृ० १४९, पा० टि० १६ ९ मोती चंद्र, पू०नि०, पृ० १५-१६, २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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