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________________ राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ] १७ पटना के समीपस्थ लोहानीपुर से मौर्यंयुगीन चमकदार आलेप से युक्त ल० तीसरी शती ई० पू० का एक नग्न कबन्ध प्राप्त हुआ है, जो सम्प्रति पटना संग्रहालय में है । कबन्ध की दिगम्बरता एवं कायोत्सर्ग-मुद्रा इसके तीर्थंकर मूर्ति होने के प्रमाण हैं । चमकदार आलेप के अतिरिक्त उसी स्थल से उत्खनन में प्राप्त होनेवाली मोर्ययुगीन ईंटें एवं एक रजत आहतमुद्रा भी मूर्ति के मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं ।" इस मूर्ति के निरूपण में यक्ष मूर्तियों का प्रभाव दृष्टित होता है । यक्ष मूर्तियों की तुलना में मूर्ति की शरीर रचना में भारीपन के स्थान पर सन्तुलन है, जिसे जैन धर्म में योग के विशेष महत्व का परिणाम स्वीकार किया जा सकता है । शरीर रचना में प्राप्त संतुलन, मूर्ति के मौर्य युग के उपरान्त निर्मित होने का नहीं वरन् उसके तीर्थंकर मूर्ति होने का सूचक है । मौर्य शासकों द्वारा जैन धर्म को समर्थन प्रदान करना और अर्थशास्त्र एवं कलिंग शासक खारवेल के लेख के उल्लेख लोहानीपुर मूर्ति के मौर्ययुगीन मानने के अनुमोदक हैं। शुंग-कुषाण युग उदयगिरि - खण्डगिरि की पहाड़ियों (पुरी, उड़ीसा) पर दूसरी - पहली शती ई० पू० की जैन गुफाएँ प्राप्त होती हैं । उदयगिरि की हाथीगुम्फा में खारवेल का ल० पहली शती ई० पू० का लेख उत्कीर्ण है । यह लेख अरहंतों एवं सिद्धों को नमस्कार से प्रारम्भ होता है और अरहंतों के स्मारिका अवशेषों का उल्लेख करता है । लेख में इस बात का भी उल्लेख है कि खारवेल ने अपनी रानी के साथ कुमारी (उदयगिरि) स्थित अर्हतों के स्मारक अवशेषों पर जैन साधुओं को निवास की सुविधा प्रदान की थी । लेख में उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन प्रतिमा को नन्दराज 'तिवससत' वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः वापस ले आया । 'तिवससत' शब्द का अर्थं अधिकांश विद्वान् ३०० वर्ष मानते 14 इस प्रकार लेख के आधार पर जिन मूर्ति की प्राचीनता ल० चौथी शती ई० पू० तक जाती है । ल० दूसरी पहली शती ई० पू० में जैन धर्म गुजरात में भो प्रवेश कर चुका था। इसकी पुष्टि कालकाचार्य कथा से होती है । कथा में उल्लेख है कि कालक ने भड़ौच जाकर लोगों को जैन धर्म की शिक्षा दी । साहित्यिक स्रोतों में ऋषभनाथ और नेमिनाथ के क्रमशः शत्रुंजय एवं गिरनार पहाड़ियों पर तपस्या करने तथा नेमिनाथ के गिरनार पर ही कैवल्य प्राप्त करने का उल्लेख प्राप्त होता है । गुजरात में ये दोनों ही पहाड़ियां सर्वाधिक धार्मिक महत्व की स्थलियां रही हैं। * लोहानीपुर जिन मूर्ति के बाद की पार्श्वनाथ की दूसरी जिन मूर्ति प्रिंस आव वेल्स संग्रहालय, बम्बई में संगृहीत है, जो ल० प्रथम शती ई० पू० की कृति है । लगभग सी समय की पार्श्वनाथ की दूसरी जिन मूर्ति बक्सर जिले के चौसा ग्राम से प्राप्त हुई है । बक्सर की गंगा के तट पर स्थिति के कारण उसका व्यापारिक महत्व था । ७ ल० दूसरी शती ई० पू० के मध्य में जैन कला को प्रथम पूर्ण अभिव्यक्ति मथुरा में मिली। यहां शुंग युग से मध्ययुग (१०२३ ई०) तक की जैन मूर्ति सम्पदा का वैविध्यपूर्ण भण्डार प्राप्त होता है, जिसमें जैन प्रतिमाविज्ञान के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाएं प्राप्त होती हैं । जैन परम्परा में मथुरा की प्राचीनता सुपार्श्वनाथ के समय तक प्रतिपादित की गई है जहां कुबेरा देवी ने सुपार्श्व की स्मृति में एक स्तूप बनवाया था । विविधतीर्थंकल्प ( १४ वीं शती ई० ) में उल्लेख है कि पार्श्वनाथ के समय में सुपार्श्व के स्तूप का विस्तार और पुनरुद्धार हुआ था, तथा बप्पभट्टिसूरि ने वि० सं० ८२६ १ जायसवाल के० पी०, 'जैन इमेज ऑव मौर्य पिरियड', ज०बि० उ०रि०सो०, खं० २३, भाग १, पृ० १३०-३२ २ रे, निहाररंजन, मौर्य ऐण्ड शुंग आर्ट, कलकत्ता, १९६५, पृ० ११५ ३ सरकार, डी० सी०, सेलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स, खं० १, कलकत्ता, १९६५, पृ० २१३ ४ वही, पृ० २१३ - २१ ६ विविधतीर्थंकल्प, पृ० १-१० Jain Education International ५ वही, पृ० २१५, पा० टि० ७ ७ मोती चन्द्र, सार्थवाह, पटना, १९५३, पृ० १५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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