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[ जैन प्रतिमाविज्ञान कलाकेन्द्रों का मानचित्र पर्याप्त परिवर्तित हुआ । इन्हीं सन्दर्भो में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अध्ययन में उपर्युक्त दो दृष्टियों का प्रयोग अपेक्षित प्रतीत हुआ। आरम्भिक काल (प्रारम्भ से ७वीं शती ई० तक)
प्रारम्भ से सातवीं शती ई० तक के इस अध्ययन में पार्श्वनाथ एवं महावीर जिनों और मौर्य, कुषाण, गुप्त और अन्य शासकों के काल में जैन धर्म एवं कला की स्थिति और उसे प्राप्त होनेवाले राजकीय एवं सामान्य समर्थन का उल्लेख है। जैन धर्म में मूर्ति पूजन की प्राचीनता की दृष्टि से जीवन्तस्वामी मूर्ति की परम्परा एवं अन्य प्रारम्भिक जैन मूतियों का भी संक्षेप में उल्लेख किया गया है। पार्श्वनाथ एवं महावीर का युग
जैनों ने सम्पूर्ण कालचक्र को उत्सपिणी और अवसर्पिणी इन दो युगों में विभाजित किया है, और प्रत्येक युग में २४ तीर्थंकरों (या जिनों) की कल्पना की है। वर्तमान अवसर्पिणी युग के २४ तीर्थंकरों में से केवल अन्तिम दो तीर्थंकरों, पार्श्वनाथ एवं महावीर, की ही ऐतिहासिकता सर्वमान्य है। साहित्यिक परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ के समय (ल. ८वीं शती ई० पू०) में भी जैन धर्म विभिन्न राज्यों एवं शासकों द्वारा समर्थित था । पार्श्वनाथ वाराणसी के शासक अश्वसेन के पुत्र थे। उनका वैवाहिक सम्बन्ध प्रसेनजित के राजपरिवार में हुआ था। जैन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि महावीर के समय में भी मगध के आसपास पार्श्वनाथ के अनुयायी विद्यमान थे। किन्तु यह उल्लेखनीय है कि पार्श्वनाथ एवं महावीर के बीच के २५० वर्षों के अन्तराल में जैन धर्म से सम्बद्ध किसी प्रकार की प्रामाणिक ऐतिहासिक सूचना नहीं प्राप्त होती है।
अन्तिम तीर्थंकर महावीर भी राजपरिवार से सम्बद्ध हैं। पटना के समीप स्थित कुण्डयाम के ज्ञातृवंशीय शासक सिद्धार्थ उनके पिता और वैशाली के शासक चेटक की बहन त्रिशला उनकी माता थीं। उनका जन्म पार्श्वनाथ के २५० वर्ष पश्चात् ल० ५९९ ई० पू० में हुआ था और निर्वाण ५२७ ई० पू० में । वैशाली के शासक लिच्छवियों के कारण ही महावीर को सर्वत्र एक निश्चित समर्थन मिला । महावीर ने मगध, अंग, राजगृह, वैशाली, विदेह, काशी, कोशल, वंग, अवन्ति आदि स्थलों पर विहार कर अपने उपदेशों से जैन धर्म का प्रसार किया।
साहित्यिक परम्परा के अनुसार महावीर ने अपने समकालीन मगध के शासकों, बिम्बिसार एवं अजातशत्रु को
नुयायी बनाया था। बिम्बिसार का महावीर के चामरधर के रूप में उल्लेख किया गया है । अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदय या उदायिन को भी जैन धर्म का अनुयायी बताया गया है जिसकी आज्ञा से पाटलिपुत्र में एक जैन मन्दिर का निर्माण हुआ था। किन्तु इन शासकों द्वारा जैन एवं बौद्ध धर्मों को समान रूप से दिये गये संरक्षण से स्पष्ट है कि राजनीतिक दृष्टि से विभिन्न धर्मों के प्रति उनका समभाव था।
महावीर से पूर्व तीर्थंकर मूर्तियों के अस्तित्व का कोई भी साहित्यिक या पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जैन ग्रन्थों में महावीर की यात्रा के सन्दर्भ में उनके किसी जैन मन्दिर जाने या जिन मूर्ति के पूजन का अनुल्लेख है। इसके विपरीत यक्ष-आयतनों एवं यक्ष-चैत्यों (पूर्णभद्र और माणिभद्र) में उनके विश्राम करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
१ शाह, सी० जे०, जैनिजम इन नार्थ इण्डिया, लन्दन, १९३२, पृ० ८३ २ आवश्यक नियुक्ति, गाथा १७, पृ० २४१; आवश्यक चूणि, गाथा १७, पृ० २१७ ३ महावीर की तिथि निर्धारण का प्रश्न अभी पूर्णतः स्थिर नहीं हो सका है। विस्तार के लिए द्रष्टव्य, जैन, के०
सी०, लार्ड महावीर ऐण्ड हिज टाइम्स, दिल्ली, १९७४, पृ० ७२-८८ ४ शाह, सी० जे०, पू०नि०, पृ० १२७ ५ शाह, यू० पी०, 'बिगिनिंग्स आव जैन आइकानोग्राफी,' सं०पु०प०. अं० ९, पृ० २
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