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________________ परिशिष्ट- ४ ] द्वितीर्थी- जिन-मूर्ति: इन मूर्तियों में दो जिनों को साथ-साथ निरूपित किया गया। प्रत्येक जिन अष्ट-प्रातिहार्यो, 'युगल और अन्य सामान्य विशेषताओं से युक्त हैं । जैन परम्परा में इन मूर्तियों का अनुल्लेख है । यक्ष-यक्षी ध्यानमुद्रा या पर्यंकासन या पद्मासन या सिद्धासन : जिनों के दोनों पैर मोड़कर (पद्मासन) बैठने की मुद्रा जिसमें खुली हुई हथेलियां गोद में (बायीं के ऊपर दाहिनी) रखी होती हैं । नंदीश्वर द्वीप : जैन लोकविद्या का आठवां और अन्तिम महाद्वीप, जो देवताओं का आनन्द स्थल है। यहां ५२ शाश्वत् जिनालय हैं । पंचकल्याणक : प्रत्येक जिन के जीवन की पांच प्रमुख घटनाएं - च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य (ज्ञान) और निर्वाण (मोक्ष) । पंचपरमेष्ठि : अहंत् (या जिन), सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । प्रथम दो मुक्त आत्माएं हैं । अहंत् शरीरधारी हैं। पर सिद्ध निराकार हैं । परिकर : जिन-मूर्ति के साथ की अन्य पाश्ववर्ती या सहायक आकृतियां । बिब : प्रतिमा या मूर्ति । मांगलिक स्वप्न : संख्या १४ या १६ । श्वेतांबर सूची -गज, वृषभ, सिंह, श्रीदेवी ( या महालक्ष्मी या पद्मा), पुष्पहार, चंद्रमा, सूर्य, सिंहध्वज दण्ड, पूर्णकुम्भ, पद्म सरोवर, क्षीरसमुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि । दिगंबर सूची में सिंहध्वज-दण्ड के स्थान पर नागेन्द्रभवन का उल्लेख है तथा मत्स्य युगल और सिंहासन को सम्मिलित कर शुभ स्वप्नों की संख्या १६ बताई गई है । २६७ मूलनायक : मुख्य स्थान पर स्थापित प्रधान जिन-मूर्ति । ललितमुद्रा या ललितासन या अर्धपर्यंकासन : जैन मूर्तियों में सर्वाधिक प्रयुक्त विश्राम का एक आसन जिसमें एक पैर मोड़कर पीठिका पर रखा होता है और दूसरा पीठिका से नीचे लटकता है । लांछन : जिनों से सम्बन्धित विशिष्ट लक्षण जिनके आधार पर जिनों की पहचान सम्भव होती है । वरदमुद्रा : वर प्रदान करने की सूचक हस्त मुद्रा जिसमें दाहिने हाथ की खुलो हथेली बाहर की ओर प्रदर्शित होती है और उंगलियां नीचे की ओर झुकी होती हैं । शलाकापुरुष : ऐसी महान आत्माएं जिनका मोक्ष प्राप्त करना निश्चित है । जैन परम्परा में इनकी संख्या ६३ है । २४ जिनों के अतिरिक्त इसमें १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं । शासनदेवता या यक्ष-यक्षी : जिन प्रतिमाओं के परम्परा में प्रत्येक जिन के साथ एक यक्ष-यक्षी युगल की एवं रक्षक देव हैं । साथ संयुक्त रूप से अंकित देवों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण । जैन कल्पना की गई जो सम्बन्धित जिन के चतुविध संघ के शासक समवसरण : देवनिर्मित सभा जहां केवल ज्ञान के पश्चात् प्रत्येक जिन अपना प्रथम उपदेश देते हैं और देवता, मनुष्य एवं पशु जगत के सदस्य आपसी कटुता भूलकर उसका श्रवण करते हैं। तीन प्राचीरों तथा प्रत्येक प्राचीर में चार प्रवेश-द्वारों वाले इस भवन में सबसे ऊपर पूर्वाभिमुख जिन की ध्यानस्थ मूर्ति बनी होती है । Jain Education International सहस्रकूट जिनालय : पिरामिड के आकार की एक मन्दिर अनुकृति जिस पर एक सहस्र या अनेक लघु जिन आकृतियां बनी होती हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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