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________________ परिशिष्ट-४ पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या अभयमुद्रा : संरक्षण या अभयदान की सूचक एक हस्तमुद्रा जिसमें दाहिने हाथ की खुली हथेली दर्शक की ओर प्रदर्शित होती है । दुन्दुभि । अष्ट- महाप्रातिहार्य : अशोक वृक्ष, दिव्य-ध्वनि, सुरपुष्पवृष्टि, त्रिछत्र, सिंहासन, चामरधर, प्रभामण्डल एवं देव अष्टमांगलिक चिह्न : स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, दर्पण एवं मत्स्य ( या मत्स्ययुग्म) । श्वेतांबर और दिगंबर परम्परा की सूचियों में कुछ मित्रता दृष्टिगत होती है आयागपट : जिनों (अर्हतों) के पूजन के निमित्त स्थापित वर्गाकार प्रस्तर पट्ट जिसे लेखों में भायागपट या पूजाशिला पट कहा गया है। इन पर जिनों की मानव मूर्तियों और प्रतीकों का साथ-साथ अंकन हुआ है । उत्सर्पिणी-अवर्सापणी : जैन कालचक्र का विभाजन । प्रत्येक युग में २४ जिनों की कल्पना की गई है । उत्सर्पिणी धर्म एवं संस्कृति के विकास का और अवसर्पिणी अवसान या ह्रास का युग है । वर्तमान युग अवसर्पिणी युग है । उपसर्ग : पूर्व जन्मों की वैरी एवं दुष्ट आत्माओं तथा देवताओं द्वारा जिनों की तपस्या में उपस्थित विघ्न । कायोत्सर्ग - मुद्रा या खड्गासन : जिनों के निरूपण से सम्बन्धित मुद्रा जिसमें समभंग में खड़े जिन की दोनों भुजाएं लंबवत् घुटनों तक प्रसारित होती हैं। दोनों चरण एक दूसरे से और हाथ शरीर से सटे होने के स्थान पर थोड़ा अलग होते हैं । जिन : शाब्दिक अर्थ विजेता, अर्थात् जिसने कर्म और वासना पर विजय प्राप्त कर लिया हो। जिन को ही तीर्थंकर भी कहा गया। जैन देवकुल के प्रमुख आराध्य देव । जिन - चौमुखी या प्रतिमा सर्वतोभद्रिका : वह प्रतिमा जो सभी ओर से शुभ या मंगलकारी है । इसमें एक ही शिलाखण्ड में चारों ओर चार जिन प्रतिमाएं ध्यानमुद्रा या कायोत्सर्गं में निरूपित होती हैं । . जिन चौवीसी या चतुविशति जिन पट्ट : २४ जिनों की मूर्तियों से युक्त पट्ट; या मूलनायक के परिकर में लांछन-युक्त या लांछन-विहीन अन्य २३ जिनों की लघु मूर्तियों से युक्त जिन चौवीसी । जीवन्तस्वामी महावीर : वस्त्राभूषणों से सज्जित महावीर की तपस्यारत कायोत्सर्ग मूर्ति । महावीर के जीवनकाल में निर्मित होने के कारण जीवन्तस्वामी या जीवितस्वामी संज्ञा । दिगंबर परम्परा में इसका अनुल्लेख है । अन्य जिनों के जीवन्तस्वामी स्वरूप की भी कल्पना की गई । तीर्थंकर : कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के सम्मिलित चतुविध तीर्थ की स्थापना के कारण जिनों को तीर्थंकर कहा गया । त्रितीर्थी- जिन-मूर्ति: इन मूर्तियों में तीन जिनों को साथ-साथ निरूपित किया गया । प्रत्येक जिन अष्ट-प्रातिहार्यो, यक्ष - यक्षी युगल एवं अन्य सामान्य विशेषताओं से युक्त हैं । कुछ में बाहुबली और सरस्वती भी आमूर्तित हैं । जैन परम्परा इन मूर्तियों का अनुल्लेख है । देवताओं के चतुर्वर्ग : भवनवासी ( एक स्थल पर निवास करने वाले), व्यंतर या वाणमन्तर ( भ्रमणशील ), ज्योतिष्क (आकाशीय-नक्षत्र से सम्बन्धित ) एवं वैमानिक या विमानवासी (स्वर्ग के देवता) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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