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________________ २१२ [ जैन प्रतिमाविज्ञान में यक्ष को चतुर्भुज और सिंह पर आरूढ़ बताया गया है और उसके करों में पाश, अंकुश, फल एवं वरदमुद्रा का उल्लेख है ।" कुबेर के निरूपण में नाम, गजवाहन एवं मुद्गर के सन्दर्भ में हिन्दू कुबेर का प्रभाव देखा जा सकता है । पर जैन कुबेर की मूर्तिविज्ञानपरक दूसरी विशेषताएं स्वतन्त्र एवं मौलिक हैं । 3 दक्षिण भारतीय परम्परा — दोनों परम्परा के ग्रन्थों में अष्टभुज कुबेर का वाहन गज है । दिगंबर ग्रन्थ में चतुर्मुख यक्ष के दक्षिण करों में खड्ग, शूल, कटार और अभयमुद्रा तथा वाम में शर, चाप, बर्फी (या गदा) और कटकमुद्रा (या कोई अन्य आयुध) के प्रदर्शन का विधान है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ के अनुसार चतुर्मुख कुबेर खड्ग, खेटक, बाण, धनुष, मातुलिंग, परशु, वरदमुद्रा और शण्डमुद्रा (?) से युक्त है । यक्ष-यक्षी लक्षण में यक्ष के करों में खड्ग, खेटक, शर, चाप, पद्म, दण्ड, पाश एवं वरदमुद्रा वर्णित हैं । उपर्युक्त से स्पष्ट है कि दक्षिण भारतीय परम्पराएं उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा से प्रभावित हैं । कुबेर यक्ष की कोई स्वतन्त्र या जिन-संयुक्त मूर्ति नहीं मिली है । (१९) वैरोट्या ( या अपराजिता ) यक्षी शास्त्रीय परम्परा वैरोट्या (या अपराजिता ) जिन मल्लिनाथ की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा वैरोट्या " का वाहन पद्म है और दिगंबर परम्परा में चतुर्भुजा अपराजिता का वाहन शरभ ( या अष्टापद) है । श्वेतांबर परम्परा –निर्वाणकलिका में पद्मवाहना वैरोट्या के दाहिने हाथों में वरदमुद्रा एवं अक्षसूत्र और बायें में मातुलिंग एवं शक्ति का वर्णन है । अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं आयुधों के उल्लेख हैं । ७ दिगंबर परम्परा - प्रतिष्ठासारसंग्रह में अपराजिता का वाहन अष्टापद ( शरभ ) है और उसके तीन हाथों में फल, खड्ग एवं खेटक का उल्लेख है; चौथी भुजा की सामग्री का अनुल्लेख है ।" अन्य ग्रन्थों में शरभवाहना यक्षी की चौथी भुजा में वरदमुद्रा वर्णित है ।" १ पाशाङ्कुशफलवरा धनेट् सिंहे चतुर्मुखः । अपराजित पृच्छा २२१.५३ पू०नि०, पृ० ११३ २ भट्टाचार्य, बी० सी० ३ जैन कुबेर के हाथ में धन के थैले ( नकुल के चर्म से निर्मित) का न प्रदर्शित किया जाना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है । ज्ञातव्य है कि धन के थैले एवं अंकुश और पाश से युक्त गजारूढ़ यक्ष का उल्लेख नेमिनाथ के सर्वानुभूति यक्ष के रूप में किया गया है क्योंकि नेमिनाथ की मूर्तियों में अम्बिका के साथ यही यक्ष निरूपित है । ४ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० २०७ ५ मन्त्राधिराजकल्प एवं देवतामूर्तिप्रकरण में यक्षी को क्रमशः वनजात देवी और धरणप्रिया नामों से सम्बोधित किया गया है । ६ वैरोट्यां देवीं कृष्णवर्णां पद्मासनां चतुर्भुजां वरदाक्षसूत्रयुक्त दक्षिणकरां मातुलिंगशक्तियुक्तवामहस्तां चेति । निर्वाणकलिका १८.१९ ७ त्रि००पु०च० ६.६.२५३ - ५४; पद्मानन्दमहाकाव्यः परिशिष्ट - मल्लिनाथ ६० - ६१; मन्त्राधिराजकल्प ३.६२; देवतामूर्तिप्रकरण ७.५४; आचारदिनकर ३४, पृ० १७७ ८ अष्टापदं समारूढा देवी नाम्नाऽपराजिता । फलासिखेहस्तासी हरिद्वर्णा चतुर्भुजा ।। प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.५९ ९ शरभस्थाच्यते खेटफलासिवरयुक् हरित् ।। प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१७३ द्रष्टव्य, प्रतिष्ठातिलकम् ७.१९, पृ० ३४६; अपराजितपृच्छा २२१.३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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