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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ] २११ ___ दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर ग्रन्थ में चतुर्भुजा यक्षी का वाहन हंस है और उसकी ऊपरी भुजाओं में सपं एवं निचली में अभयमुद्रा एवं शक्ति का उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में वृषभवाहना यक्षी (विजया) षण्मुखा एवं द्वादशभुजा है जिसके करों में खड्ग, खेटक, शर, चाप, चक्र, अंकुश, दण्ड, अक्षमाला, वरदमुद्रा, नीलोत्पल, अभयमुद्रा और फल का वर्णन है। यक्षी का स्वरूप यक्षेन्द्र (१८वां यक्ष) से प्रभावित है। यक्ष-यक्षी-लक्षण में हंसवाहना विजया चतुर्भुजा है और उसके हाथों में उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा के समान सर्प, वज्र, मृग एवं वरदमुद्रा वर्णित हैं।' मूर्ति-परम्परा यक्षी की दो स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं। ये मूर्तियां देवगढ़ (मन्दिर १२, ८६२ ई०) एवं बारभूजी गुफा के समदों में उत्कीर्ण हैं। देवगढ़ में अरनाथ के साथ 'तारादेवी' नाम की द्विभुजा यक्षी निरूपित है। यक्षी की दाहिनी भुजा जान पर स्थित है और बायीं में पद्म है । बारभुजी गुफा की मूर्ति में भी यक्षी द्विभुजा है और उसका वाहन सम्भवतः गज है। यक्षी के करों में वरदमुद्रा एवं सनाल पद्म प्रदर्शित हैं। उपर्युक्त दोनों मूर्तियों में यक्षी की एक भुजा में पद्म का प्रदर्शन श्वेतांबर परम्परा से निर्देशित हो सकता है। स्मरणीय है कि दोनों मूर्तियां दिगंबर स्थलों से मिली हैं। राज्य संग्रहालय, लखनऊ की जिन-संयुक्त मूर्ति में द्विभुज यक्षी सामान्य लक्षणों वाली है। (१९) कुबेर यक्ष शास्त्रीय परम्परा कबेर (या यक्षेश) जिन मल्लिनाथ का यक्ष है। दोनों परम्पराओं में गजारूढ यक्ष को चतमख एवं अष्टभज बताया गया है। श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में गरुडवदन' कुबेर का वाहन गज है और उसके दाहिने हाथों मे वरदमुद्रा. परश, शल एवं अभयमुद्रा तथा बायें में बीजपूरक, शक्ति, मुद्गर एवं अक्षसूत्र का उल्लेख है। अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों का वर्णन है । मन्त्राधिराजकल्प में कुबेर को चतुर्मुख नहीं कहा गया है। देवतामूर्तिप्रकरण में रथारूढ़ कुबेर के केवल छह ही हाथों के आयुधों का उल्लेख है; फलस्वरूप शूल एवं अक्षसूत्र का अनुल्लेख है।' .... दिगंबर परम्परा-प्रतिष्ठासारसंग्रह में गजारूढ़ यक्षेश के आयुधों का अनुल्लेख है । प्रतिष्ठासारोद्धारमें कुबेर के हाथों में फलक, धनुष, दण्ड, पद्म, खड्ग, बाण, पाश एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है ।'' अपराजितपृच्छा १ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० २०७ २ जि०इ०३०, पृ० १०३, १०६ ३ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२ ४ पद्म का प्रदर्शन बौद्ध तारा का प्रभाव भी हो सकता है। ५ केवल निर्वाणकलिका में ही यक्ष को गरुडवदन कहा गया है । ६ कुबेरयक्षं चतुर्मुखमिन्द्रायुधवणं गरुडवदनं गजावाहनं अष्टभुजं वरदपरशुशूलाभययुक्तदक्षिणपाणिं बीजपूरकशक्तिमुद् पराक्षसूत्रयुक्त-वामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.१९ (पा०टि के अनुसार मूल ग्रन्थ में वरद, पाश एवं चाप के उल्लेख हैं।) ७ त्रि०२०पु०च० ६.६.२५१-५२; पद्मानन्दमहाकाव्य-परिशिष्ट-मल्लिनाथ ५८-५९; मन्त्राधिराजकल्प ३.४३; आचारदिनकर ३४, पृ० १७५; मल्लिनाथचरित्रम् (विनयचन्द्रसूरिकृत) ७.११५४-११५६ ८ देवतामूर्तिप्रकरण ७.५३ ९ मल्लिनाथस्य यक्षेशः कुबेरो हस्तिवाहनः । सुरेन्द्रचापवर्णोसावष्टहस्तश्चतुर्मुखः ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.५८ १० सफलकधनुर्दण्डपद्य खड्गप्रदरसुपाशवरप्रदाष्टपाणिम् । गजगमनचतुर्मुखेन्द्र चापद्युतिकलशांकनतं यजेकुबेरम् ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१४७ द्रष्टव्य, प्रतिष्ठातिलकम् ७.१९, पृ० ३३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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