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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ] १८५ दण्ड एवं दो में पद्म के साथ ध्यान किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि यहां भी दक्षिण भारतीय परम्परा उत्तर भारत की दिगंबर परम्परा से प्रभावित है। मूर्ति-परम्परा विमलवसही के रंगमण्डप से सटे उत्तरी छज्जे पर एक देवता की अतिभंग में खड़ी षड्भुज मूर्ति उत्कीर्ण है। देवता का वाहन गज है। उसके चार हाथों में वज्र, पाश, अभयमुद्रा एवं जलपात्र हैं तथा शेष दो मुद्राएं व्यक्त करते हैं। देवता की सम्भावित पहचान मातंग से की जा सकती है । मातंग की कोई और स्वतन्त्र मूर्ति नहीं प्राप्त होती है। विभिन्न क्षेत्रों की सुपाश्र्वनाथ की मूर्तियों (११वीं-१२वीं शती ई०) में यक्ष का चित्रण प्राप्त होता है । पर इनमें पारम्परिक यक्ष नहीं निरूपित है। सुपार्श्व से सम्बद्ध करने के उद्देश्य से यक्ष को सामान्यतः सर्पफणों के छत्र से युक्त दिखाया गया है । देवगढ़ के मन्दिर ४ की मूर्ति (११वीं शती ई०) में तीन सपंफणों के छत्र से युक्त द्विभुज यक्ष के हाथों में पुष्प एवं कलश हैं । राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे ९३५, ११वीं शती ई०) की एक मूर्ति में तीन सर्पफणों के छत्रवाला यक्ष चतुर्भुज है जिसके हाथों में अभयमुद्रा, चक्र, चक्र एवं चक्र प्रदर्शित हैं। कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर के गूढ़मण्डप ति (११५७ ई०) में गजारूढ़ यक्ष चतुर्भुज है और उसके हाथों में वरदमुद्रा, अंकुश, पाश एवं धन का थैला हैं । विमलवसही की देवकुलिका १९ की मूर्ति में भी गजारूढ़ यक्ष चतुर्भुज है और उसके करों में वरदमुद्रा, अंकुश, पाश एवं फल प्रदर्शित हैं। (७) शान्ता (या काली) यक्षी शास्त्रीय परम्परा शान्ता (या काली) जिन सुपार्श्वनाथ को यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में चतुर्भुजा शान्ता गजवाहना एवं दिगंबर परम्परा में चतुर्भजा काली वषभवाहना है। श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में गजवाहना शान्ता की दक्षिण भुजाओं में वरदमुद्रा और अक्षमाला एवं वाम में शूल और अभयमुद्रा का उल्लेख है । आचारदिनकर में अक्षमाला के स्थान पर मुक्तामाला एवं देवतामूर्तिप्रकरण में शूल के स्थान पर त्रिशूल' के उल्लेख हैं । मन्त्राधिराजकल्प में यक्षी मालिनी एवं ज्वाला नामों से सम्बोधित है । ग्रन्थ के अनुसार गजवाहना यक्षी भयानक दर्शन वाली है और उसके शरीर से ज्वाला निकलती है। यक्षी के हाथों में वरदमुद्रा, अक्षमाला, पाश एवं अंकुश का वर्णन है । १ रामचन्द्रन, टी०एन०, पू०नि०, पृ० २०० २ कुम्भारिया एवं विमलवसही की उपर्युक्त दोनों ही मूर्तियों की लाक्षणिक विशेषताएं श्वेतांबर ग्रन्थों में वर्णित मातंग की विशेषताओं से मेल खाती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि गुजरात एवं राजस्थान के श्वेतांबर स्थलों पर इन्हीं लक्षणों वाले यक्ष को सभी जिनों के साथ निरूपित किया गया है और उसकी पहचान सर्वानूभूति से की गई है। ज्ञातव्य है कि कुम्भारिया की सुपार्श्व-मूर्ति में यक्षी अम्बिका ही है। ३ शान्तादेवीं सुवर्णवर्णा गजवाहनां चतुर्भुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां शूलाभययुतवामहस्तां चेति । निर्वाणकलिका १८.७; त्रि०शपु०च० ३.५.११२-१३; पद्यानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट-सुपार्श्वनाथ १९-२० ४ ." लसन्मुक्तामालां वरदमपि सव्यान्यकरयोः । आचारदिनकर ३४, पृ० १७६ ५ वरदं चाक्षसूत्रं चाभयं तस्मास्त्रिशूलकम् । देवतामूर्तिप्रकरण ७.३१। ६ ज्वालाकरालवदना द्विरदेन्द्रयाना दद्यात् सुखं वरमथो जपमालिकां च । पाशं शृणि मम च पाणिचतुष्टयेन ज्वालाभिधा च दधती किल मालिनीव ॥ मन्त्राधिराजकल्प ३.५६ २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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