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________________ यक्ष - यक्षी - प्रतिमाविज्ञान ] (६) अच्युता ( या मनोवेगा) यक्षी शास्त्रीय परम्परा अच्युता (या मनोवेगा) जिन पद्मप्रभ की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में यक्षी को अच्युता ( या श्यामा या मानसी) और दिगंबर परम्परा में मनोवेगा कहा गया है। दोनों परम्परा के ग्रन्थों में यक्षी को चतुर्भुजा बताया गया है । श्वेतांबर परम्परा - निर्वाणकलिका में नरवाहना अच्युता के दक्षिण करों में वरदमुद्रा एवं वीणा तथा वाम में धनुष एवं अभयमुद्रा का वर्णन है ।' अन्य ग्रन्थों में वीणा के स्थान पर पाश या बाण के उल्लेख हैं । आचारदिनकर में यक्षी के दाहिने हाथों में पाश एवं वरदमुद्रा और बायें में मातुलिंग एवं अंकुश का उल्लेख है । दिगंबर परम्परा – प्रतिष्ठासारसंग्रह में चतुर्भुजा अश्ववाहना मनोवेगा के केवल तीन करों के आयुधों - वरदमुद्रा, खेटक एवं खड्ग का उल्लेख है ।" अन्य ग्रन्थों में चौथी भुजा में मातुलिंग वर्णित है । अपराजितपृच्छा में अश्ववाहना मनोवेगा के करों में वज्र, चक्र, फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है । ७ १८३ श्वेतांबर परम्परा में यक्षी का नाम १४वीं महाविद्या अच्युता से ग्रहण किया गया। हाथों में बाण एवं धनुष का प्रदर्शन भी सम्भवतः महाविद्या अच्युता का ही प्रभाव है । यक्षी का नरवाहन सम्भवतः महाविद्या महाकाली से प्रभावित है । दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम मनोवेगा है, पर उसकी लाक्षणिक विशेषताएं (अश्ववाहन, खड्ग, खेटक ) महाविद्या अच्युता से प्रभावित हैं । दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर ग्रन्थ में अश्ववाहना यक्षी के ऊपरी हाथों में खड्ग एवं खेटक और नीचे के हाथों में अभय एवं कटक - मुद्रा का उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में मृगवाहना यक्षी के करों में खड्ग, खेटक, शर एवं चाप का वर्णन है । यक्ष-यक्षी लक्षण में अश्ववाहना यक्षी वरदमुद्रा, खेटक, खड्ग एवं मातुलिंग से युक्त है ।" दक्षिण भारत के दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में यक्षी के साथ अश्ववाहन एवं खड्गं और खेटक के प्रदर्शन उत्तर भारत के दिगंबर परम्परा से सम्बन्धित हो सकते हैं । मूर्ति-परम्परा यक्षी की नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की चार स्वतन्त्र मूर्तियां देवगढ़, खजुराहो, ग्यारसपुर एवं बारभुजी गुफा से मिली हैं ।" देवगढ़ के मन्दिर १२ (८६२ ई०) की भित्ति पर पद्मप्रम के साथ 'सुलोचना' नाम की अवाना यक्षी निरूपित है ।" चतुर्भुजा यक्षी के तीन हाथों में धनुष, बाण एवं पद्म हैं तथा चौथा जानु पर स्थित १ अच्युतां देवीं श्यामवर्णां नरवाहनां चतुर्भुजां वरदवीणान्वितदक्षिणकरां कार्मुकामययुतवामहस्तां ॥ निर्वाणकलिका १८.६ २ त्रि० श०पु०च० ३.४.१८२ - ८३; पद्मानन्दमहाकाव्य - परिशिष्ट ६. १७-१८ ३ मन्त्राधिराजकल्प ३.५५; देवतामूर्तिप्रकरण ७.२९ ४ श्यामा चतुर्भुजधरा नरवाहनस्था पाशं तथा च वरदं कारयोर्दधाना । वामान्ययोस्तदनु सुन्दरबीजपूरं तीक्ष्णांकुशं च परयोः ....... ॥ आचारदिनकर ३४, पृ० १७६ ५ तुरंगवाहना देवी मनोवेगा चतुर्भुजा । वरदा कांचना छाया सिद्धासिफलकायुधा ।। प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.२८ ६ मनोवेगा सफलकफलखड्गवराच्यते । प्रतिष्ठासारोद्वार ३. १६१; प्रतिष्ठातिलकम् ७.६, पृ० ३४२ ७ चतुर्वणा स्वर्णवर्णाऽशनिचक्रफलं वरम् । अश्ववाहनसंस्था च मनोवेगा तु कामदा || अपराजितपृच्छा २२१.२० ८ रामचन्द्रन, टी० एन० पू०नि०, पृ० २०० ९ ये सभी दिगंबर स्थल हैं । Jain Education International १० जि०६० दे०, पृ० १०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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