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________________ १८१ -यक्ष- यक्षी - प्रतिमाविज्ञान ] दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर ग्रन्थ में चतुर्भुज यक्ष का वाहन गरुड है । उसके दो हाथों में सर्प और शेष दो में अभय और कटक - मुद्राएं प्रदर्शित हैं । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में चतुर्भुज यक्ष का वाहन सिंह है और उसके करों में खड्ग, फलक, वज्र एवं फल प्रदर्शित हैं । यक्ष-यक्षी-लक्षण में नागयज्ञोपवीत से युक्त यक्ष के दो हाथों में सर्प, और अन्य दो में फल एवं वरदमुद्रा हैं ।' यक्ष यक्षी लक्षण एवं दिगंबर ग्रन्थ के विवरण उत्तर भारतीय दिगंबर परम्परा के समान हैं । मूर्ति-परम्परा तुम्बरु यक्ष की एक भी स्वतन्त्र ११ वीं शती ई०) में ही यक्ष आमूर्तित है । मूर्ति नहीं मिली है। केवल खजुराहो की दो सुमतिनाथ की मूर्तियों (१० वींइनमें द्विभुज यक्ष सामान्य लक्षणों वाला और अभयमुद्रा एवं फल से युक्त है । (५) महाकाली ( या पुरुषदत्ता) यक्षी शास्त्रीय परम्परा महाकाली ( या पुरुषदत्ता) जिन सुमतिनाथ की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में यक्षी को महाकाली और दिगंबर परम्परा में पुरुषदत्ता (या नरदत्ता) नाम से सम्बोधित किया गया है । श्वेतांबर परम्परा – निर्वाणकलिका के अनुसार चतुर्भुजा महाकाली का वाहन पद्म है और उसके दाहिने हाथों के आयुध वरदमुद्रा और पाश तथा बायें के मातुलिंग और अंकुश हैं । परवर्ती ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों के उल्लेख हैं । ४ केवल देवतामूर्तिप्रकरण में पाश के स्थान पर नागपाश का उल्लेख है । " दिगंबर परम्परा - प्रतिष्ठासारसंग्रह में चतुर्भुजा पुरुषदत्ता का वाहन गज है और उसकी भुजाओं में वरदमुद्रा, चक्र, वज्र एवं फल का वर्णन है । अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं लक्षणों के उल्लेख हैं । ७ दक्षिण भारतीय परम्परा — दिगंबर ग्रन्थ में गजारूढ़ यक्षी की ऊपरी भुजाओं में चक्र एवं वज्र और निचली में अभय एवं कटक मुद्राएं उल्लिखित हैं । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में द्विभुजा यक्षी का वाहन श्वान् है तथा हाथों के आयुध अभयमुद्रा और अंकुश हैं । यक्ष-यक्षी लक्षण में गजवाहना यक्षी चक्र, वज्र, फल एवं वरदमुद्रा से युक्त है । " चतुर्भुजा यक्षी के ये विवरण उत्तर भारत की दिगंबर परम्परा से प्रभावित हैं । १ रामचन्द्रन, टी०एन० पू०नि०, पृ० १९९ 1 २ ये मूर्तियां पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह की भित्ति एवं मन्दिर ३० में हैं । विमलवसही की देवकुलिका २७ की सुमतिनाथ की मूर्ति में चतुर्भुज यक्ष सर्वानुभूति है । ३ ....महाकालीं देवीं सुवर्णवर्णा पद्मवाहनां चतुर्भुजां वरदपाशा धिष्ठितदक्षिणकरां मातुलिंगांकुशयुक्तवामभुजां चेति ॥ निर्वाणकलिका १८.५ ४ द्रष्टव्य, त्रि० श०पु०च० ३.३.२४८-४९; मन्त्राधिराजकल्प ३.५४; पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट - सुमतिनाथ १९-२० ; आचारदिनकर ३४, पृ० १७६ ५ वरदं नागपाशं चांकुशं स्याद् बीजपूरकम् । देवतामूर्तिप्रकरण ७.२७ ६ देवी पुरुषदत्ता च चतुर्हस्तागजेन्द्रगा । रथांगवज्रशस्त्रासौ फलहस्ता वरप्रदा । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.२५ गजेन्द्रगावज्ज्र फलोद्यचक्रवरां गहस्ता. । प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१६० ७ प्रतिष्ठातिलकम् ७.५, पृ० ३४२; अपराजितपुच्छा २२१.१९ ८ रामचन्द्रन, टी० एन० पु०नि०, पृ० २०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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