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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ] १७९ विगंबर परम्परा-प्रतिष्ठासारसंग्रह में गजारूढ़ यक्षेश्वर के करों के आयुधों का अनुल्लेख है ।' प्रतिष्ठासारोद्धार में यक्षेश्वर की दाहिनी भुजाओं के आयुध संक-पत्र और खड्ग तथा बायीं के कामुक और खेटक हैं। प्रतिष्ठातिलकम में संकपत्र के स्थान पर बाण का उल्लेख है । अपराजितपुच्छा में यक्ष का चतुरानन नाम से स्मरण है जिसका वाहन हंस तथा भुजाओं के आयुध सर्प, पाश, वज्र और अंकुश हैं। यक्षेश्वर के निरूपण में गजवाहन एवं अंकुश का प्रदर्शन सम्भवतः हिन्दू देव इन्द्र का प्रभाव है । अपराजितपृच्छा में अंकुश के साथ ही वज्र के प्रदर्शन का भी निर्देश है । अपराजितपच्छा में यक्ष के नाम, चतुरानन, और वाहन, हंस, के सन्दर्भ में हिन्दू ब्रह्मा का प्रभाव भी देखा जा सकता है। दक्षिण भारतीय परम्परा-दक्षिण भारत में दोनों परम्परा के ग्रन्थों में उत्तर भारत की दिगंबर परम्परा के अनुरूप गजारूढ़ यक्ष चतुर्भुज है और उसकी भुजाओं के आयुध अभयमुद्रा (या बाण), खड्ग, खेटक एवं धनुष हैं।" मूर्ति-परम्परा ___ यक्ष की एक भी स्वतन्त्र मूर्ति नहीं मिली है। केवल अभिनन्दन की तीन मूर्तियों (१०वीं-११वीं शती ई०) में यक्ष निरूपित है। इनमें से दो खजुराहो (पार्श्वनाथ मन्दिर, मन्दिर २९) तथा तीसरी देवगढ़ (मन्दिर ९) से मिली हैं। इनमें सामान्य लक्षणों वाला द्विभुज यक्ष अभयमुद्रा एवं फल (या कलश) से युक्त है । (४) कालिका (या वज्रशृंखला) यक्षी शास्त्रीय परम्परा कालिका (या वज्रशृंखला) जिन अभिनन्दन की यक्षी है । श्वेतांबर परम्परा में यक्षी को कालिका (या काली) और दिगंबर परम्परा में वजश्रृंखला कहा गया है। दोनों परम्पराओं में यक्षी को चतुर्भुजा बताया गया है। श्वेतांबर परम्परा निर्वाणकलिका में पद्मवाहना कालिका के दाहिने हाथों में वरदमुद्रा और पाश एवं बायें में सर्प और अंकुश का उल्लेख है । अन्य ग्रन्थों में भी यही लाक्षणिक विशेषताएं वर्णित हैं । विगंबर परम्परा–प्रतिष्ठासारसंग्रह में वज्रशृंखला के वाहन हंस और भुजाओं में वरदमुद्रा, नागपाश, अक्षमाला और फल का उल्लेख है।' परवर्ती ग्रन्थों में भी इन्हीं आयुधों का वर्णन है। __ दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर परम्परा में चतुर्भुजा यक्षी का वाहन हंस है और वह भुजाओं में अक्षमाला, अभयमुद्रा, सपं एवं कटकमुद्रा धारण किये है। अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में यक्षी का वाहन कपि और करों में चक्र, १ अभिनन्दननाथस्य यक्षो यक्षेश्वराभिधः । हस्तिवाहनमारूढ़ः श्यामवर्णश्चतुर्भुजः ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.२१ २ प्रेरंवद्धनुः खेटकवामपाणि संकपत्रास्यपसव्यहस्तम् । श्यामं करिस्थं कपिकेतुभक्तं यक्षेश्वरं यक्षभिहार्चयामि ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१३२ ३ .""वामान्यहस्तोद्धृतबाणखड्गं । प्रतिष्ठातिलकम् ७.४, पृ० ३३२ ४ नागपाशवज्रांकुशा हंसस्थश्चतुराननः । अपराजितपुच्छा २२१.४६ ५ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० १९९ ६ ..."कालिकादेवी श्यामवर्णा पद्मासनां चतुर्भुजां वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणभुजां नागांकुशान्वितवामकरां चेति । निर्वाणकलिका १८४ ७ त्रिश०पु०च० ३.२.१६१-६२; आचारदिनकर ३४, पृ० १७६; मंत्राधिराजकल्प ३.५४ ८ वरदा हंसमारूढा देवता वजशृंखला । नागपाशाक्षसूत्रोरुफलहस्ता चतुर्भुजा ।। प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.२२-२३ ९ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५९; प्रतिष्ठातिलकम् ७.४, पृ० ३४१; अपराजितपृच्छा २२१.१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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