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________________ १७६ [ जैन प्रतिमाविज्ञान अंकुश और चक्र एवं वाम करों में शंख (?), जलपात्र, वृक्ष की टहनी और चक्र हैं।' नवमुनि एवं बारभुजी गुफाओं की मूर्तियों के विवरणों से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में रोहिणी की लाक्षणिक विशेषताएं स्थिर नहीं हो पायी थीं। विश्लेषण सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि ल० दसवीं शती ई० में यक्षी की स्वतन्त्र मूर्तियों का उत्कीर्णन प्रारम्भ हुआ, जिनके उदाहरण ग्यारसपुर (मालादेवी मन्दिर), देवगढ़ एवं उड़ीसा में नवमुनि और बारभुजी गुफाओं से मिले हैं। दिगंबर स्थलों की इन मूर्तियों में रोहिणी के निरूपण में अधिकांशतः श्वेतांबर महाविद्या रोहिणी की विशेषताएं ग्रहण की गयीं। केवल मालादेवी मन्दिर की मूर्ति में ही वाहन और आयुधों के सन्दर्भ में दिगंबर परम्परा का निर्वाह किया गया है। (३) त्रिमुख यक्ष शास्त्रीय परम्परा त्रिमुख जिन सम्भवनाथ का यक्ष है। दोनों परम्पराओं में उसे तीन मुखों, तीन नेत्रों और छह भुजाओं वाला -तथा मयूरवाहन से युक्त बताया गया है। श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में त्रिमुख यक्ष के दाहिने हाथों में नकुल, गदा एवं अभयमुद्रा और बायें में फल, सर्प एवं अक्षमाला का उल्लेख है। अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं आयुधों की चर्चा है। मन्त्राधिराजकल्प में त्रिमुख यक्ष का वाहन मयूर के स्थान पर सर्प है। आचारदिनकर के अनुसार यक्ष नौ नेत्रों वाला (नवाक्ष) है।'' ___दिगंबर परम्परा–प्रतिष्ठासारसंग्रह में आयुधों का अनुल्लेख है। प्रतिष्ठासारोद्धार में त्रिमुख यक्ष के दाहिने हाथों में दण्ड, त्रिशूल एवं कटार (शितकर्तृका), और बायें में चक्र, खड्ग एवं अंकुश दिये गये हैं । अपराजितपृच्छा यक्ष के करों में परशु, अक्षमाला, गदा, चक्र, शंख और वरदमुद्रा का उल्लेख करता है। दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर परम्परा के अनुसार मयूर पर आरूढ़ त्रिमुख यक्ष षड्भुज है और उसकी दाहिनी भुजाओं में त्रिशूल, पाश (या वज्र) एवं अभयमुद्रा, और बायीं में खड्ग, अंकुश एवं पुस्तक (? या खुली हुई हथेली) रहते हैं। अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ के अनुसार वीरमर्कट पर आरूढ़ यक्ष के करों में खड्ग, खेटक, कटार (कट्रि), चक्र, त्रिशूल एवं दण्ड होने चाहिये । यक्ष-यक्षी-लक्षण में तीन मुखों एवं नेत्रों वाले यक्ष का वाहन मयूर है और उसके १ वही, पृ० १३३ . २ ..."त्रिमुखयक्षेश्वरं त्रिमुखं त्रिनेत्रं श्यामवर्ण मयूरवाहनं षड्भुजं नकुलगदाभययुक्तदक्षिणपाणिं मातुलिंगनागाक्षसूत्रा न्वितवामहस्तं चेति । निर्वाणकलिका १८.३ ३ त्रि०शपु०च० ३.१.३८५-८६; पद्मानन्दमहाकाव्य : परिशिष्ट-सम्भवनाथचरित्र १७-१८ ४ ससनस्थितिरयं त्रिमुखो मदीयम् । मन्त्राधिराजकल्प ३.२८ ५ आचारदिनकर ३४, पृ० १७३ ६ षड्भुजस्त्रिमुखोयक्षस्त्रिनेत्र सिखिवाहनः । श्यामलांगो विनीतात्मा सम्भवं जिनमाश्रितः । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.१९ ७ चक्रासिशृण्युपगसव्यसयोन्यहस्तदंडत्रिशूलमुपयन् शितकर्तृकाच । वाजिध्वजप्रभुनतः शिखिगोंजनाभस्त्रयक्षः प्रतिक्षतु बलि त्रिमुखाख्ययक्षः ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१३१ द्रष्टव्य, प्रतिष्ठातिलकम् ७.३, पृ० ३३२ ८ मयूरस्थस्त्रिनेत्रश्च त्रिवक्त्रः श्यामवर्णकः । परश्वक्षगदाचक्र शंखा वरश्च षड्भुजः ॥ अपराजितपृच्छा २२१:४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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