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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ] १७३ चक्रेश्वरी की द्विभुज से विंशतिभुज मूर्तियां बनीं।' पर सर्वाधिक मूर्तियों में चक्रेश्वरी चतुर्भजा हो है। चक्रेश्वरी के निरूपण में सर्वाधिक स्वरूपगत विविधता दिगंबर स्थलों पर ही दृष्टिगत होती है। सभी क्षेत्रों की मूर्तियों में गरुडवाहन (मानवरूप में) एवं चक्र का नियमित प्रदर्शन हुआ है जो जैन ग्रन्थों के निर्देशों का पालन है। ग्रन्थों के निर्देशों के विपरीत उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश में गदा और शंख, गुजरात एवं राजस्थान में एक भुजा में शंख और दो भुजाओं में चक्र तथा उड़ीसा में खड़ग और खेटक का प्रदर्शन लोकप्रिय था। (२) महायक्ष शास्त्रीय परम्परा मदायक्ष जिन अजितनाथ का यक्ष है। दोनों परम्परा के ग्रन्थों में महायक्ष को गजारूढ़, चतुर्मूख एवं अष्टभज कहा गया है। श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका में गजारूढ़ महायक्ष की दाहिनी भुजाओं में वरदमुद्रा, मुद्गर, अक्षमाला, पाश और बायीं में मातुलिंग अभयमुद्रा, अंकुश एवं शक्ति का उल्लेख है ।२ अन्य श्वेतांबर ग्रन्थों में भी इन्हीं आयुधों के नाम हैं। दिगंबर परम्परा-प्रतिष्ठासारसंग्रह में गजारूढ़ महायक्ष के आयुधों का उल्लेख नहीं है । प्रतिष्ठासारोद्धार के अनुसार महायक्ष के दाहिने हाथों में खड्ग (निस्त्रिश), दण्ड, परशु एवं वरदमुद्रा और बायें में चक्र, त्रिशूल, पद्म और अंकुश होने चाहिए ।' अपराजितपृच्छा में गजारूढ़ महायक्ष की आठ भुजाओं में श्वेतांबर परम्परा के अनुरूप वरदमुद्रा, अभयमुद्रा, मुद्गर, अक्षमाला, पाश, अंकुश, शक्ति एवं मातुलिंग के प्रदर्शन का विधान है। महायक्ष के साथ गजवाहन और अंकुश का प्रदर्शन हिन्दू देव इन्द्र का, यक्ष का चतुर्मुख होना ब्रह्मा का तथा परशु और त्रिशूल धारण करना शिव का प्रभाव हो सकता है। दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर परम्परा में सर्प पर आसीन और गज लांछन से युक्त अष्टभुज महायक्ष के करों में खड्ग, दण्ड, अंकुश, परशु, त्रिशूल, चक्र, पद्म एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है । श्वेतांबर परम्परा के दोनों ग्रन्थों में भी अष्टभुज एवं चतुर्भुज महायक्ष के करों में उपर्युक्त आयुधों का ही उल्लेख है। यक्ष-यक्षी-लक्षण में महायक्ष का १ दिगंबर स्थलों से चक्रेश्वरी की द्विभुज, चतुर्भुज, षड्भुज, अष्टभुज, दशभुज, द्वादशभुज एवं विंशतिभुज मूर्तियां मिली हैं। २ महायक्षाभिधानं यक्षेश्वरं चतुर्मुखं श्यामवर्णं मातंगवाहनमष्टपाणि वरदमुद्गराक्षसूत्रपाशान्वितदक्षिणपाणिं बीज पूरकाभयांकुशशक्तियुक्तवामपाणिपल्लवं चेति । निर्वाणकलिका १८.२ त्रिश०पु०च० २.३.८४२-४४; पद्मानन्दमहाकाव्यः परिशिष्ट-अजितस्वामीचरित्र १९-२०; मन्त्राधिराजकल्प ३.२७; आचारदिनकर ३४, पृ० १७३ ३ देवतामूर्तिप्रकरण में महायक्ष का वाहन हंस है और एक भुजा में अक्षमाला के स्थान पर वज्र प्रदर्शित है । देवतामूर्तिप्रकरण ७.२० ४ अजितश्च महायक्षो हेमवर्णश्चतुर्मुखः । ___ गजेन्द्रवाहनारूढः स्वोचिताष्टभुजायुधः ॥ प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.१७ ५ चक्रत्रिशूलकमलांकुशवामहस्तो निस्त्रिशदण्डपरशूधवरान्यपाणिः । प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१३० ६ श्यामोऽष्टबाहुहंस्तिस्थो वरदाभयमुद्गराः । अक्षपाशाङ्कुशाः शक्तिर्मातुलिंगं तथैव च ॥ अपराजितपृच्छा २२१.४४ ७ स्मरणीय है कि अजितनाथ का लांछन भी गज ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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