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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान] १६७ तान्त्रिक ग्रन्थ चक्रेश्वरी-अष्टकम् में चक्रेश्वरी के भयावह स्वरूप का ध्यान है जिसमें देवी के हाथों की संख्या का उल्लेख किये बिना ही उनमें चक्रों, पद्म, फल एवं वज्र के धारण करने का उल्लेख है। तीन नेत्रों एवं भयंकर दर्शन वाली देवी की आराधना डाकिनियों एवं गुह्यकों से रक्षा एवं अन्य बाधाओं को दूर करने तथा समृद्धि के लिए की गई है। दक्षिण भारतीय परम्परा-दक्षिण भारत में गरुडवाहना चक्रेश्वरी का द्वादशभुज एवं षोडशभुज स्वरूपों में ध्यान किया गया है। दिगंबर ग्रन्थ में षोडशभुज चक्रेश्वरी के बारह हाथों में युद्ध के आयुध, दो के गोद में तथा शेष दो के अभयमुद्रा और कटकमुद्रा में होने का उल्लेख है। श्वेतांबर ग्रन्थ (अज्ञात-नाम) में द्वादशभुज यक्षी को त्रिनेत्र बताया गया है। यक्षी के आठ करों में चक्र और दोष चार मे शक्ति, वज्र, वरदमुद्रा एवं पद्म प्रदर्शित हैं। यक्ष-यक्षी लक्षण में द्वादशभज चक्रेश्वरी के आठ हाथों में चक्र, दो में वन एवं शेष दो में मातुलिंग एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का विधान है। इस प्रकार स्पष्ट है कि दक्षिण भारतीय श्वेतांबर परम्परा पूरी तरह उत्तर भारत की दिगंबर परम्परा से प्रभावित है। मूर्ति परम्परा नवीं शती ई० में चक्रेश्वरी का मूर्त चित्रण प्रारम्भ हुआ। इनमें देवी अधिकांशतः मानव रूप में निरूपित गरुड वाहन तथा चक्र, शंख एवं गदा से युक्त है। गुजरात-राजस्थान (क) स्वतन्त्र मूर्तियां-ल० दसवीं शती ई० की एक अष्टभुज मूर्ति राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (६७.१५२) में सुरक्षित है । इसमें गरुडवाहना यक्षी की ऊपरी छह भुजाओं में चक्र और नीचे की दो भुजाओं में वरदमुद्रा एवं फल प्रदर्शित हैं। सेवडी (पाली, राजस्थान) के महावीर मन्दिर (११वीं शती ई०) से मिली द्विभुज चक्रेश्वरी की एक मूर्ति के चरणों के समीप गरुड तथा अवशिष्ट एक दाहिने हाथ में चक्र उत्कीर्ण है। यहां उल्लेखनीय है कि जैन देवकुल में अप्रतिचक्रा नामवाली देवी का महाविद्या के रूप में भी उल्लेख है। जैन ग्रन्थों में चतर्भजा अप्रतिचना के चारों हाथों में चक्र के प्रदर्शन का निर्देश है पर शिल्प में इसका पूरी तरह पालन न किये जाने के कारण गुजरात एवं राजस्थान में चक्रेश्वरी यक्षो एवं अप्रतिचक्रा महाविद्या के मध्य स्वरूपगत भेद स्थापित कर पाना अत्यन्त कठिन है। तथापि इन स्थलों पर महाविद्याओं की विशेष लोकप्रियता, देवी के चक्र, गदा एवं शंख आयधों तथा उसके साथ रोहिणी, वैरोट्या, महामानसी एवं अच्छुप्ता महाविद्याओं की विद्यमानता के आधार पर उसकी पहचान महाविद्या से ही की गयी है। लूणवसही की देवकुलिका १० के वितान पर चक्रेश्वरी की एक अष्टभुजी मूर्ति (१२३० ई.) है। देवी के आसन के समक्ष पक्षीरूप में गरुड बना है। देवी के करों में वरदमुद्रा, चक्र, व्याख्यान-मुद्रा, छल्ला, छल्ला, पद्मकलिका, चक्र एवं फल हैं। (ख) जिन-संयुक्त मूर्तियां-इस क्षेत्र की छठी से नवीं शती ई० तक की ऋषम मूर्तियों में यक्षी के रूप में अम्बिका ही निरूपित है। नवीं शती ई० के बाद की श्वेतांबर मूर्तियों में भी यक्षी अधिकांशतः अम्बिका ही है। केवल कुछ ही श्वेतांबर मूर्तियों (१०वी-१२वीं शती ई०) में चक्रेश्वरी उत्कीर्ण है। ऐसी मूर्तियां चन्द्रावती, विमलवसही (गर्भगृह एवं १ शाह, यू० पी०, 'आइकानोग्राफी ऑव चक्रेश्वरी', ज०ओ०ई०, खं० २०, अं० ३, पृ० २९७, ३०६ २ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० १९७-९८ ३ वही, पृ० १९८ ४ शर्मा, ब्रजेन्द्रनाथ, 'अन्पब्लिश्ड जैन ब्रोन्जेज़ इन दि नेशनल म्यूजियम', ज०ओ०६०, खं० १९, अं०३, पृ० २७६ ५ ढाकी, एम०ए०, 'सम अर्ली जैन टेम्पल्स इन वेस्टर्न इण्डिया', मजै०वि०गोजु०वा०, बम्बई, १९६८, पृ० ३३७-३८ ६ कुम्भारिया के शान्तिनाथ मन्दिर के वितान के १६ महाविद्याओं के सामूहिक चित्रण में अप्रतिचक्रा की भुजाओं में वरदमुद्रा, चक्र, चक्र और शंख प्रदर्शित हैं। विमलवसही के रंगमण्डप के १६ महाविद्याओं के सामूहिक अंकन में अप्रतिचक्रा की तीन सुरक्षित भुजाओं में चक्र, चक्र एवं फल हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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