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________________ १६६ [जैन प्रतिमाविज्ञान (१) चक्रेश्वरी यक्षी शास्त्रीय परम्परा चक्रेश्वरी (या अप्रतिचक्रा)' जिन ऋषभनाथ की यक्षी है। दोनों परम्परा के ग्रन्थों में चक्रेश्वरी का वाहन गरुड है और उसकी भुजाओं में चक्र के प्रदर्शन का निर्देश है। श्वेतांबर परम्परा में चक्रेश्वरी का अष्टभुज एवं द्वादशभुज और दिगंबर परम्परा में चतुर्भुज एवं द्वादशभुज स्वरूपों में निरूपण किया गया है। द्वादशभुज स्वरूप में दोनों परम्पराओं में चक्रेश्वरी के हाथों में जिन आयुधों के प्रदर्शन के निर्देश हैं, वे समान हैं।२ श्वेतांबर परम्परा-निर्वाणकलिका के अनुसार अष्टभुज अप्रतिचक्रा का वाहन गरुड है और उसके दाहिने हाथों में वरदमुद्रा, बाण, चक्र एवं पाश और बांये हाथों में धनुष, वज्र, चक्र एवं अंकुश होने चाहिए। परवर्ती ग्रन्थों में भी सामान्यतः इन्हीं आयुधों के उल्लेख हैं । आचारदिनकर में दो वाम भुजाओं में धनुष के प्रदर्शन का उल्लेख है। फलतः एक भूजा में चक्र नहीं प्रदर्शित है। रूपमण्डन एवं देवतामूर्तिप्रकरण में चक्रेश्वरी का द्वादशभुज स्वरूप वर्णित है जिसमें आठ भुजाओं में चक्र, दो में वज्र और शेष दो में मातुलिंग एवं अभयमुद्रा का उल्लेख है। दिगंबर परम्परा-प्रतिष्ठासारसंग्रह में चक्रेश्वरी का चतुर्भुज एवं द्वादशभुज स्वरूपों में ध्यान किया गया है। इनमें चतुर्भुज यक्षी के दो करों में चक्र और शेष दो में मातुलिंग एवं वरदमुद्रा; तथा द्वादशभुज यक्षी के आठ हाथों में चक्र, दो में वज्र और शेष दो में मातुलिंग एवं वरदमुद्रा का उल्लेख है। प्रतिष्ठासारोद्धार एवं प्रतिष्ठातिलकम् में भी समान लक्षणों वाली चतुर्भुज एवं द्वादशभुज चक्रेश्वरी का वर्णन है। अपराजितपुच्छा में द्वादशभुज चक्रेश्वरी के हाथों में वरदमुद्रा के स्थान पर अभयमुद्रा का उल्लेख है।' १ निर्वाणकलिका, त्रिश.पु०च० एवं पद्मानन्दमहाकाव्य में यक्षी का अप्रतिचक्रा नाम से उल्लेख है। २ श्वेतांबर ग्रन्थों में देवी की एक भुजा से अभयमुद्रा पर दिगंबर ग्रन्थों में वरदमुद्रा व्यक्त है। ३ अप्रतिचक्राभिधानां यक्षिणी हेमवर्णां गरुडवाहुनामष्टभुजां । वरदबाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणकरां धनुर्वनचक्रांकुशवामहस्तां चेति ।। निर्वाणकलिका १८.१ त्रि०२०पु०च० १.३, ६८२-८३; पद्मानन्दमहाकाव्य १४.२८२-८३; मंत्राधिराजकल्प ३.५१ ४ स्वर्णामा गरुडासनाष्टभुजयुम्वामे च हस्तोच्चये वनं चापमथांकुशं गुरुधनुः सौम्याशया बिभ्रती। आचारदिनकर ३४.१ ५ द्वादशभुजाष्टचक्राणि वज्रयोद्वंयमेव च । मातुलिंगाभये चैव पद्मस्था गरुडोपरि ॥ रूपमण्डन ६.२४ देवतामतिप्रकरण ७.६६ । श्वेतांबर परम्परा की द्वादशभूज यक्षी का विवरण दिगंबर परम्परा से प्रभावित है। ६ वामे चक्रेश्वरीदेवी स्थाप्यद्वादशसद्भजा । धत्ते हस्तद्वयेवजे चक्राणी च तथाष्टसु॥ एकेन बीजपूरं तु वरदा कमलासना । चतुर्भुजाथवाचक्रं द्वयोर्गरुड वाहनं । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.१५-१६ ७ भर्मामाद्य करद्वयालकुलिशा चक्रांकहस्ताष्टका सव्यासव्यशयोल्लसत्फलवरा यन्मूर्तिरास्तेम्बुजे । ताय वा सह चक्रयुग्मरुचकत्यागैश्चतुभिः करैः पंचेष्वास शतोन्नतप्रभूनतां चक्रेश्वरी तां यजे । प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५६ प्रतिष्ठातिलकम् ७.१ ८ षट्पादा द्वादशभुजा चक्राण्यष्टौ द्विवचकम् । मातुलिंगाभये चैव तथा पद्मासनाऽपि च ॥ गरुडोपरिसंस्था च चक्रेशी हेमवर्णिका । अपराजितपृच्छा २११.१५-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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