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________________ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ] १६३ दक्षिण भारतीय परम्परा-दक्षिण भारत के दोनों परम्परा के ग्रन्थों में गो के मुख बाले, चतुर्भज एवं वृषभ पर ललितमुद्रा में आसीन गोमुख के हाथों में अभय-(या वरद-) मुद्रा, अक्षमाला, परशु एवं मातुलिंग के प्रदर्शन का निर्देश है।' श्वेतांबर परम्परा में यक्ष के शीर्ष भाग में धर्मचक्र के उत्कीर्णन का भी विधान है। स्पष्ट है कि दक्षिण भारत की श्वेतांबर एवं दिगम्बर परम्पराएं गोमुख के निरूपण में उत्तर भारत की दिगंबर परम्परा से सहमत हैं। मूर्ति-परम्परा गुजरात-राजस्थान (क) स्वतन्त्र मूर्तियां-इस क्षेत्र में गोमुख की केवल तीन स्वतन्त्र मूर्तियां मिली हैं। इनमें यक्ष वृषानन एवं चतुर्भुज है। दसवीं शती ई० की एक मूर्ति घाणेराव (पाली, राजस्थान) के महावीर मन्दिर के पश्चिमी अधिष्ठान पर उत्कीर्ण है । इसमें ललितमुद्रा में आसीन गोमुख के करों में कमण्डलु, सनालपद्म, सनालपद्म एवं वरदमुद्रा प्रदर्शित हैं । ल० दसवीं शती ई० की दूसरी मूर्ति हथमा (बाड़मेर, राजस्थान) से मिली है और सम्प्रति राजपूताना संग्रहालय अजमेर (२७०) में है (चित्र ४३)। ललितमुद्रा में बैठे गोमुख के हाथों में अभयमुद्रा, परशु, सपं एवं मातुलिंग हैं। यज्ञोपवीत से शोभित यक्ष के मस्तक पर धर्मचक्र भी उत्कीर्ण है। उपर्युक्त दोनों मूर्तियों में वाहन अनुपस्थित हैं। बारहवीं शती ई० की एक मूर्ति तारंगा के अजितनाथ मन्दिर के गूढ़मण्डप की दक्षिणी भित्ति पर है। यहां गोमुख त्रिभंग में खड़े हैं और उनके समीप ही गजवाहन भी उत्कीर्ण है । यक्ष की एक अवशिष्ट भुजा में सम्भवतः अंकुश है। (ख) जिन-संयुक्त मूर्तियां इस क्षेत्र की केवल कुछ ही ऋषभ मूर्तियों में गोमुख निरूपित हैं। राजस्थान की एक ऋषभ मूर्ति (१० वीं शती ई०) में चतुर्भुज गोमुख की तीन भुजाओं में अभयमुद्रा, परशु एवं जलपात्र हैं। बयाना (भरतपुर) की ऋषभमूर्ति (१० वीं शती ई०) में चतुर्भुज गोमुख की दो भुजाओं में गदा एवं फल हैं। कुम्भारिया के प एवं महावीर मन्दिरों (११ वीं शती ई०) के वितानों पर उत्कीर्ण ऋषभ के जीवनदृश्यों में भी गोमुख की में दो चतुर्भुज मूर्तियां हैं । शान्तिनाथ मन्दिर की मूर्ति में गजारूढ़ गोमुख की भुजाओं में वरदमुद्रा, अंकुश, पाश एवं धन का थैला प्रदर्शित हैं (चित्र १४)। महावीर मन्दिर की मूर्ति में दो अवशिष्ट दाहिने हाथों में वरदमुद्रा एवं अंकुश ही के गर्भगृह की ऋषभ मूर्ति (१२ वीं शती ई०) में गजारूढ़ गोमुख के करों में फल, अंकुश, पाश एवं धन का थैला हैं । विमलवसही की देवकुलिका २५ की एक अन्य मूर्ति में गजारूढ़ गोमुख की भुजाओं में वरदमुद्रा, अभयमुद्रा, पाश एवं फल हैं। यह अकेली मूर्ति है जिसके निरूपण में श्वेतांबर ग्रन्थों के निर्देशों का पालन किया गया है। उपर्युक्त मूर्तियों से स्पष्ट है कि ल० दसवीं शती ई० में गुजरात एवं राजस्थान में गोमुख की स्वतन्त्र एवं जिन-संयुक्त मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं। श्वेतांबर स्थलों की मूर्तियों में परम्परा के अनुरूप गजवाहन एवं पाश प्रदर्शित हैं। श्वेतांबर स्थलों की ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की मूर्तियों में अंकुश एवं धन के थैले का प्रदर्शन भी लोकप्रिय था. जो सम्भवतः सर्वानुभूति यक्ष का प्रभाव है। इस क्षेत्र की दिगंबर परम्परा की मूर्तियों में वाहन नहीं उत्कीर्ण है, पर परशु एवं एक उदाहरण में शीर्ष भाग में धर्मचक्र के उत्कीर्णन में परम्परा का पालन किया गया है । उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश-इस क्षेत्र से गोमुख की स्वतन्त्र मतियां नहीं मिली हैं। पर जिन-संयुक्त मूर्तियों में ऋषभ के साथ गोमुख का चित्रण दसवीं शती ई० में ही प्रारम्भ हो गया था। वाहन का अंकन लोकप्रिय नहीं था। १ रामचन्द्रन, टी०एन०, पू०नि०, पृ० १९७ २ भट्टाचार्य, यू० सी०, ‘गोमुख यक्ष', ज०यू०पी०हि सो० ख० ५, भाग २ (न्यू सिरीज), पृ० ८-९ ३ यह मूर्ति बोस्टन संग्रहालय (६४.४८७) में है । ४ यह मूर्ति भरतपुर राज्य संग्रहालय (६७) में है-द्रष्टव्य, अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्रसंग्रह १५७.१२ ५ केवल अक्षमाला के स्थान पर अभयमुद्रा प्रदर्शित है। ६ घाणेराव के महावीर मन्दिर की मूर्ति में ये विशेषताएं नहीं प्रदर्शित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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