SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ जैन प्रतिमाविज्ञान बाभुजी गुफा (खण्डगिरि, उड़ीसा) की २४ यक्षियों की मूर्तियां ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की हैं ।' देवगढ़ के समान यहां भी यक्षियों की मूर्तियां सम्बन्धित जिनों की मूर्तियों के नीचे उत्कीर्ण हैं (चित्र ५९ ) । जिन मूर्तियां लांछनों से युक्त हैं । द्विभुज से विशतिभुज यक्षियां ललितमुद्रा या ध्यानमुद्रा में आसीन हैं । २४ यक्षियों में केवल चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती के निरूपण में ही परम्परा का कुछ पालन किया गया है । कुछ यक्षियों के निरूपण में ब्राह्मण एवं बौद्ध देवकुलों की देवियों के लक्षणों का अनुकरण किया गया है । शान्ति, अर एवं नमि की यक्षियों के निरूपण में क्रमशः गजलक्ष्मी (महालक्ष्मी), तारा (बौद्धदेवी) एवं ब्रह्माणी ( त्रिमुख एवं हंसवाहना) के प्रभाव स्पष्ट हैं । अन्य क्ष स्थानीय कलाकारों की कल्पना की देन प्रतीत होती हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि देवगढ़ समूह को २४ यक्षियों के विपरीत बारभुजी गुफा की यक्षियां स्वतन्त्र लक्षणों वाली हैं । अब प्रत्येक जिन के यक्ष-यक्षी युगल के प्रतिमाविज्ञान का अलग-अलग अध्ययन किया जायगा । (१) गोमुख यक्ष १६२ शास्त्रीय परम्परा गोमुख जिन ऋषभनाथ का यक्ष है। श्वेतांबर एवं दिगंबर दोनों ही परम्परा के ग्रन्थों में गोमुख को चतुर्भुज कहा गया है । श्वेतांबर परम्परा –निर्वाणकलिका के अनुसार गो के मुख वाले गोमुख यक्ष का वाहन गज तथा आयुध दाहिने हाथों में वरदमुद्रा एवं अक्षमाला और बांयें में मातुलिंग (फल) एवं पाश हैं । 3 अन्य ग्रन्थों में भी यही लक्षण प्राप्त होते हैं।* केवल आचारदिनकर में वाहन वृषभ है और दोनों पावों में गज एवं वृषभ के उत्कीर्णन का निर्देश है ।" रूपमण्डन में गोमुख को गजानन कहा गया है । दिगंबर परम्परा - दिगंबर परम्परा में गोमुख का शीर्ष भाग धर्मचक्र चिह्न से लांछित, वाहन वृषभ और करों के आयुध परशु, फल, अक्षमाला एवं वरदमुद्रा हैं । स्पष्टतः परशु के अतिरिक्त शेष आयुध श्वेतांबर परम्परा के समान हैं । " इस प्रकार श्वेतांबर एवं दिगंबर ग्रन्थों में केवल वाहन (गज या वृषभ) एवं आयुधों (पाश या परशु) के प्रदर्शन के सन्दर्भ में ही fear दृष्टिगत होती है । आचारदिनकर में गोमुख के पावों में गज एवं वृषभ के चित्रण का निर्देश सम्भवतः वाहनों के सन्दर्भ में दोनों परम्पराओं के समन्वय का प्रयास है । १ मित्रा, देबला, 'शासनदेवीज इन दि खण्डगिरि केव्स', ज०ए०सो०, खं० १, अं० २, पृ० १३०-३३ २ मुनिसुव्रत की यक्षी को लेटी हुई मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है । ३ तथा तत्तीर्थोत्पन्नगो मुखयक्षं हेमवणंगजवाहनं चतुर्भुजं वरदाक्षसूत्रयुतदक्षिणपाणि मातुलिंगपाशान्वितवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.१ ४ त्रि० श०पु०च० १.३.६८० - ८१; पद्मानन्दमहाकाव्य १४.२८० - ८१; मन्त्राधिराजकल्प ३.२६ ५ स्वर्णाभो वृषवाहनो द्विरदगोयुक्तश्चतुर्बाहुभि आचारदिनकर, प्रतिष्ठाधिकार : ३४.१ ६ रिषभो (ऋषभे) गोमुखो यक्षो हेमवर्णा गजानना (हेमवर्णो गजाननः) । रूपमण्डन ६.१७ । ज्ञातव्य है कि रूपमण्डन में गोमुख के वाहन (गज) का उल्लेख नहीं है । ७ चतुर्भुजः सुवर्णाभो गोमुखो वृषवाहनः । हस्तेन परशुं धत्ते बीजपूराक्षसूत्रकं ॥ वरदान परं सम्यक् धर्मचक्रं च मस्तके । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.१३-१४ प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१२९; प्रतिष्ठातिलकम् ७.१ ८ अपराजित पुच्छा में पाश ही प्रदर्शित है (२२१.४३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy