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________________ [ जैन प्रतिमाविज्ञान पारम्परिक यक्ष-यक्षी केवल ओसिया, देवगढ़, आबू (विमलवसही की देवकूलिका ४), खजुराहो एवं बटेश्वर की ग्यारहवीं बारहवीं शती ई० की कुछ ही मूर्तियों में निरूपित हैं। (२४) महावीर जीवनवृत्त महावीर इस अवसर्पिणी के अन्तिम जिन हैं । ज्ञातृवंश के शासक सिद्धार्थ उनके पिता और त्रिशला उनकी माता थीं। महावीर का जन्म पटना के समीप कुण्डाग्राम (या क्षत्रियकुण्ड) में ल० ५९९ ई० पू० में हुआ था।' श्वेतांबर ग्रन्थों में महावीर के जन्म के सम्बन्ध में एक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार महावीर का जीव पहले ब्राह्मण ऋषभदत्त की भार्या देवानन्दा की कक्षि में आया और देवानन्दा ने गर्भधारण की रात्रि में १४ शभ स्वप्नों का दर्शन किया। पर जब इन्द्र को इसकी सूचना मिली तो उसने विचार किया कि कभी कोई जिन ब्राह्मण कुल में नहीं उत्पन्न हए, अत: महावीर का ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होना अनुचित और परम्परा विरुद्ध होगा। इन्द्र ने अपने सेनापति हरिनैगमेषी को महावीर के भ्रण को देवानन्दा के गर्भ से क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित करने का आदेश दिया। हरिनगमेषी ने महावीर के भ्रण को स्थानान्तरित कर दिया । गर्म परिवर्तन की रात्रि में त्रिशला ने भी १४ शुभ स्वप्नों को देखा। महावीर के गर्भ में आने के बाद से राज्य के धन, धान्य, कोष आदि में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, इसी कारण बालक का नाम वर्धमान रखा गया। बाल्यावस्था के वीरोचित और अद्भुत कार्यों के कारण देवताओं ने बालक का नाम 'महावीर' रखा। महावीर का विवाह बसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा से हुआ। दिगंबर गन्थों में महावीर के विवाह का अनुल्लेख है । २८ वर्ष की अवस्था में महावीर ने अपने अग्रज नन्दिवर्धन से प्रव्रज्या ग्रहण करने की अनुमति मांगी। तथापि स्वजनों के अनुरोध पर विरक्त भाव से दो वर्ष तक महल में ही रुके रहे। इस अवधि में महावीर ने महल में ही रख कर जैन धर्म के नियमों का पालन किया और कायोत्सर्ग में तपस्या भी करते रहे। महावीर के इस रूप में उनकी जीवन्तस्वामी मूर्तियां भी उत्कीर्ण हुई हैं । इनमें महावीर वस्त्राभूषणों से सज्जित प्रदर्शित किये गये। ३० वर्ष की अवस्था में महावीर ने आभरणों का त्याग कर पंचमुष्टिक में केशों का लुंचन किया और प्रव्रज्या ग्रहण की। साढे बारह वर्षों की कठिन साधना के बाद महावीर को जम्भक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ। कैवल्य प्राप्ति के बाद देवताओं ने महावीर के समवसरण की रचना की । अगले ३० वर्षों तक महावीर विभिन्न स्थलों पर भ्रमण कर धर्मोपदेश देते रहे। ल० ५२७ ई० पू० में ७२ वर्ष की अवस्था में राजगिर के निकट (?) पावापुरी में महावीर को निर्वाण-पद प्राप्त हुआ। प्रारम्भिक मूर्तियां महावीर का लांछन सिंह है और यक्ष-यक्षी मातंग एवं सिद्धायिका (या पद्मा) हैं। महावीर की प्राचोनतम मतियां कुषाण काल की हैं। ये मूर्तियां मथुरा से मिली हैं। ल० पहली से तीसरी शती ई. के मध्य की सात मतियां राज्य संग्रहालय, लखनऊ में संग्रहीत हैं (चित्र ३४)।" सभी उदाहरणों में महावीर की पहचान पीठिका-लेख में उत्कीर्ण नाम के आधार पर की गई है । छह उदाहरणों में लेखों में 'वर्धमान' और एक में (जे २) 'महावीर' उत्कीणं हैं। तीन उदाहरणों में संप्रति केवल पीठिकाएं ही सुरक्षित हैं। अन्य चार उदाहरणों में महावीर ध्यानमुद्रा में सिंहासन पर विराजमान हैं।" सिंहासन के मध्य में उपासकों एवं श्रावक-श्राविकाओं से वेष्टित धर्मचक्र उत्कीर्ण हैं। १ महावीर की तिथि निर्धारण के प्रश्न पर विस्तार के लिए द्रष्टव्य, जैन, के०सी०, लार्ड महावीर ऐण्ड हिज टाइम्स, दिल्ली, १९७४, पृ० ७२-८८ २ कल्पसूत्र २०-२८; त्रि०२०पु०च० १०.२.१-२८ ३ त्रि०शपु०च.१०.२.८८-१२४ ४ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ३३३-५५४ ५ क्रमांक जे०२, १४, १६, २२, ३१, ५३, ६६ ६ राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे २, १४, २२ ७ राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे १६, ३१, ५३, ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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