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________________ जिन-प्रतिमाविज्ञान ] १२५ पावं के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। पार्श्व ने आश्रमपद उद्यान में .अशोक वृक्ष के नीचे पंचमुष्टि में केशों का लुंचन कर दीक्षा ली। पावं वाराणसी से शिवपुरी नगर गये और वहीं कौशाम्बवन में कायोत्सर्ग में खड़े होकर तपस्या प्रारम्भ की। धरणेन्द्र ने धूप से पावं की रक्षा के लिए उनके मस्तक पर छत्र की छाया की थी। अपने एक भ्रमण में पार्श्व तापसाश्रम पहुंचे और सन्ध्या हो जाने के कारण वहीं एक वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में खड़े होकर तपस्या प्रारम्भ की। उसी समय आकाशमार्ग से मेघमाली (या शम्बर) नाम का असुर (कमठ का जीव) जा रहा था। जब उसने तपस्यारत पाव को देखा तो उसे पार्श्व से अपने पूर्वजन्मों के बैर का स्मरण हो आया। मेघमाली ने पार्श्व की तपस्या को भंग करने के लिए तरह-तरह के उपसर्ग उपस्थित किये। पर पाश्वं पूरी तरह अप्रभावित और अविचलित रहे। मेघमाली ने सिंह, गज वृश्चिक, सर्प और भयंकर बैताल आदि के स्वरूप धारण कर पाय को अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। उपसर्गों के बाद भी जब पार्श्व विचलित नहीं हुए तो मेघमाली ने माया से भयंकर वृष्टि प्रारम्भ की जिससे सारा वन प्रदेश जलमग्न हो गया। पाव के चारों ओर वर्षा का जल बढ़ने लगा जो धीरे-धीरे उनके घुटनों, कमर, गर्दन और नासाग्र तक पहुंच गया । पर पावं का ध्यान भंग नहीं हुआ। उसी समय पाश्व की रक्षा के लिए नागराज धरणेन्द्र पद्मावती एवं वैरोट्या जैसी नाग देवियों के साथ पार्श्व के समीप उपस्थित हुए। घरणेन्द्र ने पाश्व के चरणों के नीचे दीर्घनालयुक्त पद्म की रचना कर उन्हें ऊपर उठा दिया, उनके सम्पूर्ण शरीर को अपने शरीर से ढंक लिया; साथ ही शीर्ष भाग के ऊपर सप्तसर्पफणों का छत्र भी प्रसारित किया। उत्तरपुराण के अनुसार धरणेन्द्र ने पार्श्व को चारों ओर से घेर कर अपने फणों पर उठा लिया था, और उनव पत्नी पद्मावती ने शीर्ष भाग में वज्रमय छत्र की छाया की थी। अन्त में मेघमाली ने अपनी पराजय स्वीकार कर पात्र से क्षमायाचना की। इसके बाद धरणेन्द्र भी देवलोक चले गये। उपर्युक्त परम्परा के कारण ही मूर्तियों में पाव के मस्तक पर सात सर्पफणों के छत्र प्रदर्शन की परम्परा प्रारम्भ हई। मूर्तियों में पाव के घुटनों या चरणों तक सर्प की कुण्डलियों का प्रदर्शन भी इसी परम्परा से निर्देशित है। पाव को कभी-कभी तीन और ग्यारह सर्पफणों के छत्र से भी युक्त दिखाया गया है। पाश्वं को वाराणसी के निकट आश्रमपद उद्यान में धातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग-मुद्रा में केवल-ज्ञान और १०० वर्ष की अवस्था में सम्मेद शिखर पर निर्वाण-पद प्राप्त हुआ। प्रारम्भिक मूर्तियां पाश्व का लांछन सर्प है और यक्ष-यक्षी पार्श्व (या वामन) और पद्मावती हैं। दिगंबर परम्परा में यक्ष का नाम धरण है। पीठिका पर पावं के सर्प लांछन के उत्कीर्णन की परम्परा लोकप्रिय नहीं थी, पर सिर के ऊपर सात सर्पफणों का छत्र सदैव प्रदर्शित किया गया है। आगे के अध्ययन में शीर्षभाग के सर्पफणों का उल्लेख तभी किया जायगा जब उनकी संख्या सात से कम या अधिक होगी। पावं की प्राचीनतम मूर्तियां पहली शती ई० पू० की हैं। इनमें पाश्वं सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं। ये मूर्तियां चौसा एवं मथुरा से मिली हैं। मथुरा की मूर्ति आयागपट पर उत्कीर्ण है। इसमें पाश्वं ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं।" चौसा (भोजपुर, बिहार) एवं प्रिंस ऑव वेल्स संग्रहालय, बम्बई की दो मूर्तियों में पार्श्व निर्वस्त्र हैं और कायोत्सर्ग-मुद्रा १ त्रिश०पु०च०, खं० ५, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज १३९, बड़ौदा, १९६२, पृ० ३९४-९६; पासनहचरिउ १४.२६; पार्श्वनाथचरित्र ६.१९२-९३ २ उत्तरपुराण ७३.१३९-४० ३ मट्टाचार्य, बी०सी०, पू०नि०, पृ० ८२ ४ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० २८१-३३२ ५ राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे २५३ ६ शाह, यू०पी०, अकोटा बोन्जेज, फलक १ बी ७ स्ट००आ०, पृ० ८-९, पाश्व के मस्तक पर पांच सर्पफणों का छत्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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