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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
उत्कीर्ण है । रथ के समीप ही पिंजरे में बन्द शूकर, मृग जैसे पशु चित्रित हैं। विवाह मण्डप में वेदिका के एक ओर मि की और दूसरी ओर खड़ी राजीमती की मूर्ति है । नेमि की हथेली पर राजीमती की हथेली रखी है । विवाह मण्डप के समीप उग्रसेन का महल है। पांचवीं पंक्ति में विवाह के बाद बारात के वापिस लौटने का दृश्य है । एक शिविका में दो आकृतियां बैठी हैं । कहीं ऐसा तो नहीं कि शिविका की दो आकृतियां नेमि के विवाह के बाद राजीमती के साथ वापिस लौटने का चित्रण है ? आगे नेमि को गिरनार पर्वत पर कायोत्सर्ग में तपस्यारत प्रदर्शित किया गया है। छठीं पंक्ति में मि के दीक्षा- कल्याणक का दृश्य है । लूणवसही की देवकुलिका ९ के वितान के दृश्यों की भी संभावित पहचान नेमि के जीवनदृश्यों से की गई है ।'
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कल्पसूत्र के चित्रों में सबसे पहले नेमि के पूर्वभव का अंकन है । आगे नेमि के शंख लांछन के पूजन, नेमि के जन्म एवं जन्म अभिषेक के दृश्य हैं । तदुपरान्त नेमि और कृष्ण के शक्ति परीक्षण के चित्र हैं । चित्र में चतुर्भुज कृष्ण को दो भुजाओं से नेमि की भुजा झुकाने का प्रयास करते हुए दिखाया गया है । कृष्ण के समीप ही उनके आयुध-शंख, चक्र, गदा एवं पद्म चित्रित हैं । अगले चित्रों में नेमि के विवाह और दीक्षा के दृश्य हैं। आगे नेमि का समवसरण और ध्यानमुद्रा में विराजमान नेमि के चित्र हैं ।
विश्लेषण
विभिन्न क्षेत्रों की मूर्तियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ऋषभ, पाखं और महावीर के ही उत्तर भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय जिन थे । नेमि के जीवनदृश्यों के अंकन अन्य जिनों की तुलना में कला में ऋषभ और पाव के बाद नेमि की ही मूर्ति के लक्षण सुनिश्चित हुए । मथुरा में बलराम और कृष्ण का अंकन प्रारम्भ हुआ । २४ जिनों में से नेमि का शंख लांछन राजगिर की ल० चौथी शती ई० की मूर्ति इसका प्रमाण है । ल० (२१२) की मूर्ति में नेमि के साथ यक्ष-यक्षी भी निरूपित हुए । रूप में सर्वानुभूति ( या कुबेर ) एवं अम्बिका उत्कीर्ण हैं । देवगढ़ एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ की कुछ मूर्तियों में सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी भी निरूपित हैं। गुजरात एवं राजस्थान की श्वेतांबर मूर्तियों में लांछन के स्थान पर पीठिका - लेखों में नेमि के नामोल्लेख की परम्परा ही प्रचलित थी । मथुरा एवं देवगढ़ की कुछ स्वतन्त्र मूर्तियों (१०वीं - ११वीं शती ई०) में नेमि के साथ बलराम और कृष्ण भी आमूर्तित हैं ।
बाद नेमि अधिक हैं । कुषाणकाल में नेमि के साथ सबसे पहले प्रदर्शित हुआ । सातवीं शती ई० की भारत कला भवन, वाराणसी अधिकांश उदाहरणों में नेमि के साथ यक्ष-यक्षी के
(२३) पार्श्वनाथ
जीवनवृत्त
पार्श्वनाथ इस अवसर्पिणी के तेईसवें जिन हैं । पाखं को जैन धर्मं का वास्तविक संस्थापक माना गया है । वाराणसी के महाराज अश्वसेन उनके पिता और वामा (या वर्मिला ) उनकी माता थीं । जन्म के समय बालक सर्प के चिह्न से चिह्नित था । आवश्यकचूर्ण एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में उल्लेख है कि गर्भकाल में माता ने एक रात अपने पार्श्व में सर्प को देखा था, इसी कारण बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा गया । उत्तरपुराण के अनुसार जन्माभिषेक के बाद इन्द्र ने बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा । पाखं का विवाह कुशस्थल के शासक प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती से हुआ । दिगंबर ग्रन्थों में पार्श्व के विवाह प्रसंग का अनुल्लेख है । श्वेतांबर परम्परा के अनुसार नेमि के भित्ति चित्रों को देखकर, और दिगंबर परम्परा के अनुसार ऋषभ के त्यागमय जीवन की बातों को सुनकर, तीस वर्ष की अवस्था में
१ जयन्त विजय, मुनिश्री, पू०नि०, पृ० १२१
२ ब्राउन, डब्ल्यू० एन० पू०नि०, पृ० ४५-४९, फलक ३०-३४, चित्र १०१-१४
३ उत्तरपुराण और महापुराण (पुष्पदंतकृत) में पार्श्व के माता-पिता का नाम क्रमशः ब्राह्मी और विश्वसेन बताया गया है ।
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