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________________ ११२ [ जैन प्रतिमाविज्ञान सम्भवतः चक्रवर्ती पद प्राप्त करने के पूर्व विभिन्न युद्धों के लिए प्रस्थान करते हुए शान्ति के अंकन हैं। उत्तर की ओर शान्ति की दीक्षा का दृश्य है । ध्यानमुद्रा में विराजमान शान्ति केशों का लुंचन कर रहे हैं । दाहिनी ओर इन्द्र शान्ति के लुंचित केशों को एक पात्र में संचित कर रहे हैं। आगे शान्ति की कायोत्सर्ग में खड़ी एवं ध्यानमुद्रा में आसीन मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां उनकी तपस्या और कैवल्य प्राप्ति को प्रदर्शित करती हैं। उत्तर की ओर शान्ति का समवसरण बना है जिसके ऊपर शान्ति की ध्यानस्थ मूर्ति है । विमलवसही की देवकुलिका १२ के वितान पर शान्ति के पंचकल्याणकों के चित्रण हैं । विवरण की दृष्टि से विमलवसही के चित्रण कुम्भारिया के शान्तिनाथ मन्दिर के समान हैं । तुला में एक ओर कपोत और दूसरी ओर मेघरथ की आकृतियां हैं। दीक्षा-कल्याणक के दृश्य में शान्ति को शिविका में बैठकर दीक्षास्थल की ओर जाते हुए दिखाया गया है । शान्ति के केश लुंचन और इन्द्र द्वारा उन्हें संचित करने के भी दृश्य उत्कीर्ण हैं। आगे शान्ति की दो कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं जो उनकी तपस्या और कैवल्य प्राप्ति की सूचक हैं। मध्य में शान्ति का समवसरण भी बना है । (१७) कुंथुनाथ जीवनवृत्त कुंथुनाथ इस अवसर्पिणी के सत्रहवें जिन हैं। हस्तिनापुर के शासक वसु (या सूर्यसेन ) उनके पिता और श्रीदेवी उनकी माता थीं। जैन परम्परा के अनुसार गर्भकाल में माता ने कुंथु नाम के रत्नों की राशि देखी थी, इसी कारण बालक का नाम कुंथुनाथ रखा गया । चक्रवर्ती शासक के रूप में काफी समय तक शासन करने के बाद कुंथु ने दीक्षा ली और १६ वर्षों की तपस्या के बाद गजपुरम् के उद्यान में तिलक वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त किया। इनकी निर्वाण स्थली सम्मेद शिखर है ।" मूर्तियां कुंथु का लांछन छाग (या बकरा ) है और उनके यक्ष-यक्षी गन्धर्व एवं बला ( या अच्युता या गान्धारिणी) हैं । दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम जया (या जयदेवी ) है । मूर्त अंकनों में कुंथु के पारम्परिक यक्ष-यक्षी का चित्रण नहीं हुआ है। ग्यारहवीं शती ई० के पहले की कुंथु की कोई स्वतन्त्र मूर्ति नहीं मिली है । ग्यारहवीं शती ई० की मूर्तियों में कुंथु के लांछन और बारहवीं शती ई० की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हुए । ल० ग्यारहवीं शती ई० की लांछन युक्त ६ मूर्तियां अलुअर से मिली हैं और सम्प्रति पटना संग्रहालय (१०६७५, १०६८९ से १०६९३ ) में संकलित हैं। सभी उदाहरणों में कुंथु कायोत्सर्ग - मुद्रा में निर्वस्त्र खड़े हैं। तीन उदाहरणों में पीठिका पर ग्रहों की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । दो ध्यानस्थ मूर्तियां बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में हैं । 3 बारभुजी गुफा की मूर्ति में दशभुज यक्षी भी निरूपित है। बारहवीं शती ई० की एक विशाल कायोत्सर्ग मूर्ति बजरंगगढ़ (गुना) से मिली है । ११४४ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति राजपूताना संग्रहालय, अजमेर में है । इसमें कुंथु निर्वस्त्र हैं । पीठिका लेख में उनका नाम भी उत्कीर्ण है । यक्ष-यक्षी भी जो सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं, सिंहासन के छोरों पर न होकर चामरधरों के समीप खड़े हैं । विमलवसही की देवकुलिका ३५ में ११८८ ई० की एक मूर्ति है। मूर्ति लेख में कुंथुनाथ का नाम उत्कीर्णं है । यक्ष- यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । १ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ११९-२१ २ प्रसाद, एच० के, पू०नि०, पृ० २८६-८७ ३ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८१ ४ जैन, नीरज, 'बजरंगगढ़ का विशद जिनालय', अनेकान्त, वर्ष १८, अं० २, पृ० ६५-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary..org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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