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________________ [ जैन प्रतिमाविज्ञान उत्तर भारत में केवल उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश के क्षेत्र में देवगढ़, खजुराहो एवं बिजनौर से सम्भवनाथ की मूर्तियां मिली हैं। दो मूर्तियां (१०वीं-११वीं शती ई०) राज्य संग्रहालय, लखनऊ में भी हैं। लखनऊ संग्रहालय की दोनों मूर्तियों में सम्भव निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग में खड़े हैं। इनमें अष्ट-प्रातिहार्य एवं यक्ष-यक्षी नहीं निरूपित हैं । एक मूर्ति (जे ८५५) में धर्मचक्र के दोनों ओर अश्व लांछन उत्कीर्ण है। दूसरी मूर्ति (०.११८) में सम्भव के स्कन्धों पर जटाएं प्रदर्शित हैं। देवगढ़ में दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ११ मूतियां हैं। अश्व लांछन से युक्त सम्भव सभी में कायोत्सर्ग में खड़े हैं। तीन उदाहरणों में यक्ष-यक्षी नहीं उत्कीर्ण हैं। ६ उदाहरणों में द्विभुज यक्ष-यक्षी सामान्य लक्षणों वाले हैं। इनके हाथों में अभयमुद्रा (या गदा) एवं फल (या कलश) प्रदर्शित हैं । मन्दिर १५ की एक मूर्ति (११ वीं शती ई०) में यक्षी द्विभुजा है, पर यक्ष चतुर्भुज है। मन्दिर ३० की एक मूर्ति (१२ वी शती ई०) में यक्ष-यक्षी दोनों चतुर्भुज हैं। चार मूर्तियों में सम्भव के स्कन्धों पर जटाएं प्रदर्शित हैं। पांच उदाहरणों में परिकर में कलशधारी, मन्दिर १७ की मूर्ति में चार जिन और मन्दिर ३० की मूर्ति में जैन आचार्य की मतियां उत्कीर्ण हैं। खजुराहो में ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की चार मूर्तियां हैं । ११५८ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति (मन्दिर २७) में एक भी सहायक आकृति नहीं उत्कीर्ण है। अन्य उदाहरणों में सम्भव ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। दो उदाहरणों में द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो की मति (१७१५,११वीं शती ई०) में मूलनायक के पाश्वों में सुपार्श्व की दो खड़गासन मतियां उत्कीर्ण हैं । पार्श्ववर्ती जिनों के समीप दो स्त्री चामरधारिणी भी चित्रित हैं। परिकर में तीन ध्यानस्थ जिनों एवं वेणुवादकों की भी मूर्तियां हैं। पारसनाथ किले (बिजनौर) से १०१० ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति मिली है। इसके पीठिका लेख में सम्भव का नाम उत्कीर्ण है। सम्भव के पावों में नेमि एवं चन्द्रप्रभ की कायोत्सर्ग मूर्तियां निरूपित हैं। यक्ष-यक्षी रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं। (४) अभिनंदन जीवनवृत्त अभिनंदन इस अवसर्पिणी के चौथे जिन हैं । अयोध्या के महाराज संवर उनके पिता और सिद्धार्था उनकी माता थीं। अभिनंदन के गर्भ में आने के बाद से सर्वत्र प्रसन्नता छा गई, इसी कारण बालक का नाम अभिनंदन रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद अभिनंदन ने दीक्षा ग्रहण की और कठिन तपस्या के बाद अयोध्या में शाल (या पियक) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया। इनकी निर्वाण-स्थली भी सम्मेदशिखर है।' मूर्तियां दसवीं शती ई० से पूर्व की अभिनंदन की एक भी मूर्ति नहीं मिली है। अभिनंदन का लांछन कपि है और यक्ष-यक्षी यक्षेश्वर (या ईश्वर) एवं कालिका (या काली) हैं। दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम वञशृंखला है। शिल्प में अभिनंदन के पारम्परिक यक्ष-यक्षी का चित्रण नहीं प्राप्त होता । १ मन्दिर ४, ९, २१ २ तिवारी, एम०एन०पी०, 'दि आइकानोग्राफी ऑव दि इमेजेज़ ऑव सम्भवनाथ ऐट खजुराहो', ज०गुरि०सो०, खं० ३५, अं० ४, पृ० ३-९ ३ वाजपेयी, के० डो०, 'पाश्वनाथ किले के जैन अवशेष', चन्दाबाई अभिनंदन ग्रन्थ, आरा, १९५४, पृ० ३८९ ४ हस्तीमल, पू०नि०, पृ०७२-७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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