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पावा की अवस्थिति सम्बन्धी विभिन्न मत : ७५
विषय में आनन्द प्रसाद जैन' का कथन है पावा काल के प्रवाह में स्मृतिपटल से ओझल हो गया। सम्भवतः किसी मुसलमान शासक ने 'पावा नगर' नाम को फाजिलनगर के रूप में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार पावा सदा के लिए भुला दिया गया । परन्तु यह कथन उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि इतिहास से ज्ञात होता है कि मौर्य शासन काल के उत्तरार्ध में पावा का लोप हो चुका था और मौर्य काल में भारत में मुस्लिम सत्ता का अस्तित्व ही नहीं रहा है।
सठियांव-फाजिलनगर के उत्खनन से निम्न तथ्य स्पष्ट होते हैं
१. पांचवीं शताब्दी ईस्वी में फाजिलनगर से सटे ग्राम सठियांव का नाम श्रेष्ठिग्राम था।
२. यहाँ से मिट्टी की १० मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। इसमें एक मुद्रा पर 'श्रेष्ठिग्रामाग्रहारस्य' लेख है । वर्तमान सठियाँव-फाजिलनगर स्वयं अग्रहार के रूप में प्रतिष्ठित था। इसका निर्माण वर्तमान फाजिलनगर के बालू के टीले के ऊपर गुप्तकालीन बस्ती के रूप में किया गया था । 'अग्रहार' एक विशेष प्रकार का सन्निवेश था, जो राज्य की ओर से विद्वान् ब्राह्मणों को उपहार स्वरूप दिया जाता था जहाँ शासक विद्वान् ब्राह्मणों को आमन्त्रित कर बसा देते थे। उस भूभाग का भूमिकर अग्रहार वासियों को प्राप्त होता था। अग्रहार की स्थापना की परम्परा गुप्तकाल से प्रारम्भ हुई । गुप्तकाल में यह शिक्षा का केन्द्र बन चुका था। ___ ३. यहाँ खण्डित-अवस्था में मिट्टी की मानव एवं पशु की कई लघु मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिसमें गुप्तकालीन शैली का सौन्दर्य पूर्णरूपेण उपस्थित है । इसमें अश्व एवं अश्वारोहों की मूर्ति प्रमुख है।
४. यहाँ से गुप्तकालीन भवनों की कुछ भग्नदीवारें व वृत्ताकार चबूतरे का मध्यकुण्ड प्राप्त हुआ है। बुर्ज के आकार की गोलाकार संरचनाओं से किसी गढ़ी के निर्माण की धारणा व्यक्त की गई है।
५. सठियाँव के गड्ढे से मौर्ययुग की ईंटों से निर्मित दीवार के अवशेष लालरंग के बर्तन के साथ, काले लेपयुक्त (ब्लैक खण्ड) तथा कृष्णमाजित
१. जैन, आनन्द प्रसाद ( शोधपत्र ) निर्वाण भूमि पावा, मगध विश्वविद्यालय
संगोष्ठी, अप्रैल १९७५। २. फाजिलनगर सठियांव उत्खनन-गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
१९७९ ।
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