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७४ : महावीर निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श पावा के रूप में मान्यता दी थी। डॉ० राजबली पाण्डेय ने भी कार्लाइल के सिद्धान्त का अनुमोदन करते हुए सठियांव फाजिल नगर को ही पावा माना है। भिक्ष धर्मरक्षित त्रिपिटकाचार्य ने भी इसे ही पावा स्वीकार किया है।
कार्लाइल, डॉ० राजबली पाण्डेय, धर्मरक्षित, आदि विद्वान् सठियांव को चैत्यग्राम का अपभ्रंश मानते हुए इसे ही पावा समझते हैं । परन्तु १९७९ में वहाँ के उत्खनन से यह निश्चित हो गया है कि सठियाँव, 'चैत्यग्राम' का अपभ्रंश न होकर श्रेष्ठिग्राम का अपभ्रंश है।
भाषा-विज्ञान के आधार पर भी सठियांव से पावा का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किया गया है। कन्हैयालाल सरावगी के अनुसार सठियांव श्रीपावा का अपभ्रंश है। 'श्री' का प्राकृत रूप सरि या सठि होता है पावा का कालान्तर में यावा-याँवा हो गया। इस प्रकार श्रीपावा = सरिपावा = सठिपावा = सठियाँवा बन गया। बोलचाल में सुविधा हेतु इसे सठियाँवा कहने लगे। परन्तु डॉ. नेमिचन्द शास्त्री के अनुसार पावा का अपभ्रंश सठियांव सिद्ध करने हेतु प्रस्तुत तर्क युक्तिसंगत नहीं है। प्राकृत नियमानुसार श्री का 'सरि' होना तो उचित है परन्तु र का ठ नहीं बनता है। इस प्रकार सठियांव को 'पावा' का अपभ्रंश मानना युक्ति संगत नहीं है और आज तो पुरातात्त्विक साक्ष्यों से सठियाँव का प्राचीन रूप 'श्रेष्ठिग्राम' प्रमाणित हो जाने के पश्चात् यहाँ कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है ।
प्राचीन पावा का नाम परिवर्तित होकर फाजिलनगर हो जाने के
१. डॉ० पाण्डेय, राजबली, गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का
इतिहास, पृ० ७८, गोरखपुर १९४६ । २. भिक्षु, धर्मरति–'कुशीनगर का इतिहास', पृ० २१६-२२६ कुशीनगर
प्रकाशन, कुशीनगर देवरिया, बुद्धाब्द २४९३ । ३. फाजिलनगर-सठियांव उत्खनन, संक्षिप्त परिचय, गोरखपुर विश्वविद्यालय,
गोरखपुर १९७९ । ४. सरावगी, कन्हैयालाल-पावा समीक्षा, पृ० ४२, अशोक प्रकाशन, छपरा,
सारण बिहार १९७२। ५. डॉ० शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना, पृ. ३०१,
३०३, दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, सागर, मध्यप्रदेश १९७४ ।
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