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प्रागबुद्धकालीन मार्ग
प्राचीन मार्गों का सूक्ष्म अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मार्गों की उत्पत्ति एवं विकास के पीछे मानव की सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित योजना रही है | आदिकाल में मानव को जीवनयापन के लिए यात्रा करनी पड़ती थी। आदिम मनुष्यों की यात्राओं का उद्देश्य ऐसे स्थानों की खोज थी, जहाँ खाद्य वस्तुएँ, कन्दमूल फल, पशुओं के लिए चारागाह, और रहने के लिए गुफायें सुलभ हो सकें। एक स्थान पर रहते-रहते जब वहाँ पर विद्यमान जीवन निर्वाह की सुविधाओं का अभाव होने लगता था तो नये स्थान की तलाश में वे वनों और पर्वतमालाओं को पार करते हुए आगे बढ़ते जाते थे, इस प्रक्रिया में दूर तक निकल जाते थे । मार्ग में हिंसक जन्तुओं और दस्युओं आदि के भय से अकेले- दुकेले यात्रा करना निरापद नहीं था । अतः वे समूह में यात्रा करते थे, इससे सार्थ की परम्परा का विकास हुआ। वैदिक युग आते-आते सार्थ परम्परा पूर्ण विकसित हो चुकी थी ।
पड़रौना क्षेत्र में वैदिक सभ्यता के आगमन पर मोतीचन्द्र ने मत व्यक्त किया है कि वैदिक साहित्य से इस बात का पता चलता है कि आर्यों के आगे बढ़ने में उनकी गतिशीलता और बलिष्ठता अधिक सहायक थी । जंगलों के बीच रास्ते बनाने के बाद भ्रमण करते हुए ऋषियों और व्यापारियों ने वैदिक सभ्यता का प्रचार और प्रसार किया। कुछ दिनों तक आर्य सदानीरा ( आधुनिक गण्डक) के उस पार जाने का साहस नहीं जुटा पाये थे, तत्पश्चात् शतपथ ब्राह्मण युग में सदानीरा के पूर्व में जाकर बस गए थे । शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है - "सहोवाच । विदेधो ( हो ) माथ ( ध ) वः क्वा हं भवा नीत्य त एव हो प्राचीनं भुवना मिहि हो वाच । सैषार्तार्ह कोशल विदेहा नां मर्यादा ते ही माथ ( ध ) वाः । २ शतपथ ब्राह्मण में आर्यों के सदानीरा के पूर्व में बसने का विवरण इस प्रकार उपलब्ध है । सरस्वती नदी के किनारे वैदिक धर्म की पताका
१. मोतीचन्द्र, सार्थवाह, पृ० ३९, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९५३ २. शतपथ ब्राह्मण, राजस्थान वैदिक तत्व शोध संस्थान, जयपुर, १९५८, १-४-१-१०-१७
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