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सोमदेव को उपलब्धियों का अधिकाधिक उपयोग हो, यह मेरी भावना है। उन के शास्त्र में मेरो महती निष्ठा है। लगभग पांच वर्षों तक उस में डूबे रहने पर भी मुझे सोमदेव से कहीं भी असहमत नहीं होना पड़ा। मेरी आस्था कभी तनिक भी नहीं डिगी। अपने संस्करण में मैं यह बताना चाहता हूँ कि सोमदेव ने एक भी शब्द का व्यर्थ प्रयोग नहीं किया, और उनके हर प्रयोग का एक विशेष अर्थ है । ____ अन्त में सोमदेव के ही पुण्यस्मरण पूर्वक श्रद्धेय डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के प्रति श्रद्धा से अभिभूत हूँ, जिनके स्नेह, निर्देशन और प्रेरणा से प्रस्तुत प्रबन्ध का प्रणयन सम्भव हुआ। खेद है कि प्रकाशित रूप में देखने के लिए वे हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें इस रूप में इसे देखकर हार्दिक प्रसन्नता होती।
श्री सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति के श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी ने दो वर्ष तक फेलोशिप और पुस्तकालय आदि की सुविधाएँ प्रदान कों, उस के लिए संस्था के मन्त्री लाला हरजसराय जैन तथा पं० कृष्णचन्द्राचार्य का हृदय से कृतज्ञ हूँ। डॉ० राय कृष्णदास, वाराणसी, डॉ० वी० राघवन्, मद्रास, डॉ० वी० एस० पाठक, वाराणसी, डॉ० आनन्दकृष्ण, वाराणसी, डॉ० ई० डी० कुलकर्णी, पूना, डॉ० कुमारी प्रेमलता शर्मा, वाराणसी आदि अनेक विद्वानों और मित्रों का सहयोग उपलब्ध हुआ, उन सबका कृतज्ञ हूँ। प्रबन्ध में संदर्भ रूप से जिन प्राचीन और नवीन कृतियों का उपयोग किया गया है उन सभी के कृतिकारों का भी हृदय से कृतज्ञ हूँ। प्रबन्ध को प्रकाशित करने में पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक डॉ. मोहनलाल मेहता ने पूर्ण रुचि ली तथा शोध-सहायक पं. कपिलदेव गिरि ने पुस्तक की विस्तृत शब्दानुक्रमणिका तैयार की, इसके लिए दोनों का आभारी हूँ। इनके अतिरिक्त भी जाने-अनजाने जिनसे सहयोग प्राप्त हुआ उन सब के प्रति आभारी हूँ।
सत्यशासनपरीक्षा के बाद पुस्तक रूप में प्रकाशित यह मेरी द्वितीय कृति है। आशा है, विज्ञ-जन इसमें रही त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाते हुए इसका समुचित मूल्यांकन करेंगे।
दिसम्बर १९६७ ।
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