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परिच्छेद एक
वर्ण-व्यवस्था और समाज-गठन
यशस्तिलककालीन भारतीय समाज छोटे-छोटे अनेक वर्गों में बँटा हुआ था। आदर्श रूप में उन दिनों भी वर्णाश्रम-व्यवस्था की वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थीं। यशस्तिलक से इस प्रकार की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। विभिन्न प्रसंगों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों तथा अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेक सामाजिक व्यक्तियों के उल्लेख आये हैं। सोमदेव ने एकाधिक बार वर्णशुद्धि के विषय में भी सूचनाएँ दी हैं।'
वर्णाश्रम-व्यवस्था की वैदिक मान्यताओं का प्रभाव सामाजिक जीवन के रगरग में इस प्रकार बैठ गया था कि इस व्यवस्था का घोर विरोध करने वाले जैनधर्म के अनुयायी भी इसके प्रभाव से न बच सके। दक्षिण भारत में यह प्रभाव सबसे अधिक पड़ा, इसका साक्षी वहाँ उत्पन्न होने वाले जैनाचार्यों का साहित्य है। सोमदेव के पूर्व नवीं शताब्दि में ही प्राचार्य जिनसेन ने उन सभी वैदिक नियमोपनियमों का जैनीकरण करके उन पर जैनधर्म की छाप लगा दी थी, जिन्हें वैदिक प्रभाव के कारण जैन समाज भी मानने लगा था। जिनसेन के करीब सौ वर्ष बाद सोमदेव हुए। वे यदि विरोध करते तो भी सामाजिक जीवन में से उन मान्यताओं का पृथक करना सम्भव न था, इसलिए यशस्तिलक में उन्होंने यह चिन्तन दिया कि 'गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का है-लौकिक तथा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रित है तथा पारलौकिक आगमाश्रित, इसलिए लौकिक धर्म के लिए वेद (श्रुति) और स्मृतियों को प्रमाण मान लेने में कोई हानि नहीं है।'२ प्राचीन जैन साहित्य की पृष्ठभूमि पर सोमदेव के इस चिन्तन का पर्यालोचन विशेष महत्व का है।
१. भजन्ति सांकर्य मिमानि देहिनां न यत्र वर्णाश्रमधर्मवृत्तयः । -पृ. १३ - लोचनेषु वर्णसंकरो न कुलाचारेषु ।-पृ० २०८
शुद्धवर्णाश्रमचरितविगततयः । -पृ. १८३ उत्त. .. द्वौ हि धौं गृहस्थानां लोकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाचः परः स्यादागमाश्रयः ॥ जातयोऽनादयः सर्वास्त क्रियापि तथाविधाः । श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ॥-पृ. ३७३ उत्त० :
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