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प्राथमिक सन् १९५६ में एक धार्मिक परीक्षा के निमित्त मैंने पहली बार यशस्तिलक पढ़ा था, और तभी लगा था कि इस में बहुत कुछ ऐसा है, जो अबूझा बच जाता है । तब से वह बहुत कुछ जानने की साध मन में बनी रही।
काशी आने के बाद प्रो० हन्दिकी की 'यशस्तिलक एण्ड इडियन कल्चर' पुस्तक सामने आयी तथा डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का सम्पर्क मिला तो वह साध और भी जगी। ___ जुलाई १९६० में डॉ० अग्रवाल के निर्देशन में प्रस्तुत प्रबन्ध की रूपरेखा बनी और दिसम्बर १९६४ में प्रबन्ध प्रस्तुत रूप में तैयार होकर हिन्दू विश्वविद्यालय को परीक्षार्थ प्रस्तुत कर दिया गया। पुस्तक रूप में प्रकाशित होते समय भी मैंने इसमें आंशिक परिवर्तन ही किये हैं। इससे यह भी ज्ञात होगा कि शोध-प्रबन्ध को अनावश्यक विस्तार और मोटापा देना अनिवार्य नहीं है ।
मैंने यशस्तिलक की अधिकतम सामग्री को निकाल कर उसके विषय में भरसक पूर्ण जानकारी देने का प्रयत्न किया है । सोमदेव के लेखन की यह विशेषता है कि आगे-पीछे वह अपने शब्द-प्रयोग आदि के विषय में जानकारी देते चलते हैं। फिर भी जिस विषय का सोमदेव ने केवल उल्लेख मात्र किया है उसके विषय में सोमदेव के पूर्ववर्ती, समकालीन तथा उत्तरवर्ती मनीषियोंके ग्रन्थों से जानकारी प्राप्त की गयी है और उन सबको प्राचीन साहित्य, कला एवं पुरातत्त्व की साक्षी पूर्वक जांचा-परखा है।
प्रस्तुत प्रबन्ध में संग्रहीत संपूर्ण सामग्री तथा उसकी प्रमाणक सामग्री मैंने मल स्रोतों से स्वयं ही संगृहीत की है। आधुनिक अनुसंधाताओं के ग्रन्थों से जो सामग्री ली है, उसका यथास्थान उल्लेख किया है। मैं पूर्णतया सचेष्ट रहा हूँ कि प्राचीन ग्रन्थों के किसी भी अप्रामाणिक संस्करण या किसी भी अमान्य नयी कृति का उपयोग संदर्भ ग्रन्थ के रूप में न किया जाये। इस प्रकार प्रस्तुत प्रबन्ध की प्रत्येक सामग्री, उसके प्रस्तुतीकरण और विवेचन के लिए मैं अपने को उत्तरदायी अनुभव करता हूँ। यदि कहीं कोई भूल-चूक भी हुई हो तो वह भी मेरी ही कहना चाहिये।
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