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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन १२७ यही तात्पर्य निकलता है कि सम्राट ने इस प्रसंग में भी दुकूल का जोड़ा पहना था । तीसरे स्थल पर दुकूल का विशेषण 'धवल' दिया है । ४३ इस समय भी सम्राट ने दुकूल का जोड़ा ही पहना होगा अन्यथा सोमदेव अधोवस्त्र के लिए किसी अन्य वस्त्र का उल्लेख अवश्य करते । गुप्तयुग में किनारों पर हंस-मिथुन लिखे हुए दुकूल के जोड़े पहनने का आम रिवाज था । बाण ने लिखा है कि शूद्रक ने जो दुकूल पहिन रखे थे वे अमृत के फेन के समान सफेद थे। उनके किनारों पर गोरोचना से हंस - मिथुन लिखे गये थे तथा उनके छोर चमर से निकली हुई हवा से फड़फड़ा रहे थे । ४४ युद्धक्षेत्र को जाते समय हर्ष ने भी हंस - मिथुन के चिह्नयुक्त दुकूल का जोड़ा पहना था । ४५ आचारांग (२, १५, २०) में एक जगह कहा गया है कि शक्र ने महावीर को जो हंस दुकूल का जोड़ा पहनाया था वह इतना पतला था कि हवा का मामूली झटका उसे उड़ा ले जा सकता था । उसी बुनावट की तारीफ कारीगर भी करते थे । वह कलाबत्तू के तार से मिला कर बना था और उसमें हंस के अलंकार थे । अंतगडदसा ( पृ० ३२ ) के अनुसार दहेज में कीमती कपड़ों के साथ दुकूल के जोड़े भी दिए जाते थे । ४६ कालिदास ने भी हंस चिह्नित दुकूल का उल्लेख किया है ।४७ किन्तु उससे यह पता नहीं चलता कि दुकूल एक था या जोड़ा था । इसी तरह भट्टिकाव्य में भी दो बार दुकूल शब्द प्राया है ४८ परन्तु उससे भी इसके जोड़े होने या न होने पर प्रकाश नहीं पड़ता । गीतगोविन्द में करीब चार बार से भी अधिक दुकूल का उल्लेख हुआ है ९, उसी में एक बार 'दुकूले' इस द्विवचन का भी व्यवहार हुआ है 1५० ४३. धृतधवल दुकूलमाल्य विलेप नालंकारः । यश० सं० पू० पृ० ३२३ ४४. अमृतफेनधवले गोरोचनालिखितहंस मिथुन सनाथपर्यन्ते चारुचमरवायुप्रनर्तितान्तदेशे दुकूले वसानम् । कादम्बरी, पृ० १७ ४५. परिधाय राजहंस मिथुनलक्ष्मण सदृशे दुकूले । पृ० २०२ ४६. उद्धृत, मोतोचन्द्र - भारतीय वेशभूषा, पृ० १४७ - १४८ ४७. आमुक्ताभरणः स्रग्वी हसचिन्ह दुकूलवान् । - रघुवंश, १७२५ ४८. उदक्षिपन्पट्टदुकूलकेतून् । -- भट्टिकाव्य, ३ ३४, अथ स वल्कदुकूलकुथादिभिः । -- वही, १०११ ४६. शिथिलीकृतं जघनदुकूलम् । गीतगोविन्द, २, ६, ३ श्यामलमृदुलकलेवर मण्डलमधिगतगौरदुकूलम् । - वही, १२,२२,३ विरहमिवापनयामि पयोधर रोधकमुर सिंदुकूलम् । -- वही, १२, २३, ३ ५०. मंजुलवंजुल कुंजगतं विचकर्ष करेण दुकूले । वहीं १४,६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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