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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन ११७ के अतिरिक्त प्राटोप (पेट में गुड़गुड़ शब्द होना) शूल, परिकर्तन (गुदा में कतरने के सदृश पीड़ा), मलावरोध, ऊर्ध्ववात (डकार आना) तथा मुख से मल निकलने लगना आदि रोग बताए हैं ।४५ वैद्यक शास्त्र में भगन्दर को महाभयंकर रोग बताया गया है। भावप्रकाश में इसके विषय में निम्नप्रकार से जानकारी दी गयी है पूर्वरूप-भगन्दर जब होने वाला होता है तो कमर तथा शिर में सूई चुभने के समान पीड़ा, दाह तथा खुजली आदि पूर्वरूप होते हैं ।४६ लक्षण-गुदा के पार्श्व में दो अंगुल स्थान में पीड़ा करने वाली फटी हुई फुसियाँ इत्यादि कई प्रकार का भगन्दर होता है। भारतीय वैद्यक में पाँच भेद बताए हैं-(१) वातिक, (२) पैत्तिक, (३) श्लैष्मिक, (४) सन्निपातिक तथा (५) शल्यज ।४७ पाश्चात्य वैद्यक में भगन्दर को 'फिस्चुला इन एनो' कहते हैं। इनके भी कई भेद होते हैं ।४८ गुल्म-यशस्तिलक में गुल्म का कारण शौच की बाधा होने पर भी भोजन करना बताया है।४९ भावप्रकाश में अध्यशन आदि मिथ्या आहार तथा बलवान के साथ कुश्ती लड़ना आदि गुल्म के कारण बताये हैं ।५० गुल्म हृदय तथा नाभि के बीच में संचरणशील अथवा अचल तथा बढ़नेघटने वाली गोलाकार ग्रन्थि को कहते हैं । ४५. आटोपशूलौ परिकर्तिका च सगः पुरीषस्य तथोऽर्ववातः। पुरीषमास्यादथवा निरेति पुरोषवेगेऽभिहते नरस्य ।। -भा०भा० १, पृ० १०६, श्लो०१८ ४६. कटीकपालनिस्तोददाहकण्डुरुजादयः । भवन्ति पूर्वरूपाणि भविष्यति भगन्दरे॥ गुदस्य द्वयगुले क्षेत्रे पार्वतः पिण्डकार्तिकृत् । भिन्ना भगन्दरो ज्ञेया स च पंचविधो भवेत् ॥ __-वही, भाग २, चि० भ० श्लो. १,२ ४७. वही ४८. विस्तार के लिए देखें, भाव० भा॰ २, पृ० ५३६ ४६. गुल्मी जिहत्सृविहिताशनश्च । -पृ०५०६, पू० ५०. दुष्टवातादयोत्यर्थमिथ्याहारविहारतः।-भाव०, भाग २, गुल्मा०, श्लो०. ११. हृन्नाभ्योरन्तरे ग्रन्थिः संचारी यदि वाचल: । वृत्तश्चयोपचयवान्स गुल्म इति कीर्तितः ॥-वही, श्लोक ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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