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________________ ( vii ) अध्याय पाँच में श्रावकाचार के अन्तर्गत पाँच अणुव्रतों, सात शिक्षाव्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का अध्ययन किया गया है इसमें अणुव्रत शब्द के अर्थ, स्वरूप एवं वर्गीकरण को प्रस्तुत किया गया है। मन और वचन की एकता द्वारा सत्कर्म की ओर प्रवृत्त होने के जो लघु नियम हैं वे ही अणुव्रत हैं। वस्तुतः अपूर्ण से पूर्णता की ओर जाने की साधना ही अणुव्रत से महाव्रत की ओर जाने की साधना है। उपासकदशांगसूत्र में प्राप्त संदर्भो एवं इस ग्रन्थ की अभयदेववृत्ति को आधार मानकर ही अणुव्रतों का विवेचन इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार्यों ने सर्वप्रथम हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह इन पाँच प्रमुख पापों के स्वरूप का वर्णन कर फिर इनसे विरत होने की बात कही है। इसी क्रम में इन पाँचों पापों के भेद-प्रभेदों की चर्चा भी जैन साहित्य में प्राप्त होती है। व्रत पालन के प्रसंग में साधक द्वारा कई तरह से स्खलन होना स्वाभाविक है। अतः श्रावक साधना में इसका ध्यान रखते हुए प्रत्येक व्रत के साथ उनके अतिचारों का विवेचन भी जैनाचार्यों ने किया है । उन सबका विवरण इस अध्याय में तुलनात्मक दष्टि से प्रस्तुत किया गया है। श्रावकाचार के वर्णन के प्रसंग में यह बात देखने को मिलती है कि प्रायः सभी आचार्यों ने रात्रिभोजन का त्याग करने का उपदेश दिया है। अतिचारों का जो सूक्ष्म विवेचन है उसमें भी सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा से बचने का प्रयत्न जैनाचार्यों का रहा है। इस तरह श्रावकाचार गृहस्थ जीवन के लिए होते हुए भी मुनि जीवन का लघ संस्करण ही कहा जा सकता है। इस अध्याय से यह स्पष्ट होता है कि यह अणुव्रत और श्रावक के मूलगुण एक ओर जहाँ धार्मिक सिद्धान्तों को ओर मनुष्य का ध्यान आकृष्ट करते हैं वहीं दूसरी ओर सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था को भी नैतिक रूप में संचालन करने के लिए इनसे प्रेरणा प्राप्त होती है। वास्तव में जैन श्रावकाचार सहअस्तित्व और समाजवाद की दिशा में किया गया एक व्यावहारिक प्रयत्न है। उपासकदशांग में तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रतों को संयुक्त रूप से शिक्षाव्रत कहा गया है । वस्तुतः अणुव्रतों के विकास-क्रम को व्यवस्थित . करने के लिए इन गुणवतों और शिक्षाव्रतों का विधान जैन श्रावकाचार में किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र का कहना ठीक ही है कि जैसे परकोटे नगर की रक्षा करते हैं उसी प्रकार शीलवत (गुगवत एवं शिक्षात्रत) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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